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जैन धर्म में सामायिकादि विरति धर्म की जो व्यवस्था है वह भी इसी सिद्धांत पर है । सामायिक कहाँ से शुरू होती है? उसकी प्रतिज्ञा सामायिक दंडक के “करेमिभंते" सूत्र में स्पष्ट है कि “सावजं जोगं पच्चक्खामि” सावद्य–आरम्भ-सभारम्भादि जीवहिंसादि पापों की प्रवृत्ति मन वचन काया से न करना, न कराने की प्रतिज्ञा लेकर सामायिक धर्माराधना प्रारम्भ की जाती है । सामायिक द्वारा चल रही पाप प्रवृत्ति का त्याग अर्थात् पाप के आश्रव के मार्ग का निरोध करना, रोकना और प्रतिक्रमण की धर्माराधना में किए हुए पापों का पश्चाताप क्षमायाचना की जाती है । पौषध यह धर्म की पुष्टिकारक आराधना है। एक बार पाप प्रवृत्ति का त्याग कर लिया अब उसके बाद शुद्ध आत्मधर्म की पुष्टिरूप धर्म करना चाहिए। पच्चक्खाण शब्द त्याग के अर्थ में प्रयुक्त है। दशवैकालिक आगम में प्रभु महावीर का उपदेश इस प्रकार है कि...
सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं।
उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं सेयं तं समायरे॥ हे चेतन् ! कल्याणकारी श्रेयस्कर मार्ग को भी अच्छी तरह सोचकर समझ लो। और पाप के अशुभ मार्ग को भी अच्छी तरह सोचकर समझ लो । इन दोनों को अच्छी तरह सोच-समझकर इन दोनों में से जो ज्यादा श्रेयस्कर कल्याणकारी हो उसका ही आचरण करना चाहिए । पाप का मार्ग और पुण्यधर्म का मार्ग दोनों अच्छी तरह समझकर आत्मा के लिए श्रेयस्कर कल्याणकारी जो धर्माचरण का शुद्ध श्रेष्ठ मार्ग है उसका आचरण अवश्य सतत करना ही चाहिए।
धर्म क्या और कैसा है? - इच्छा और आज्ञा दोनों शब्दों एवं उनके अर्थों से आप परिचित है ही । अतःसोचिए, क्या धर्म इच्छाप्रधान होना चाहिए? या आज्ञाप्रधान? इच्छा के विषय में अन्त नहीं है। कब किस जीव की कैसी इच्छा? कितनी इच्छा किस-किस प्रकार की अच्छी-बुरी इच्छाएँ होगी इसका कोई ठिकाना ही नहीं है । मोहनीय कर्म के उदय से इच्छा का जन्म होता है, उद्भवती है । अब जब कर्म ही अशुभ है तो फिर उसके उदय से इच्छाएं भी कैसी जगेगी? और कर्म अशुभ इसलिए है कि..अशुभ पाप की प्रवृत्ति से बना है। मोहनीय कर्म में राग और द्वेष दो प्रधान प्रमुख कारण हैं । अतः इच्छा भी रागमय और द्वेषमय दोनों प्रकार की बनेगी। इन राग-द्वेषमय इच्छा में क्रोध, मान, माया और लोभ इन कषायों की गन्ध आएगी । अतः ऐसा इच्छामय धर्म बनाना ही नहीं चाहिए । संसार में भिन्न भिन्न मति
देश विरतिघर श्रावक जीवन
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