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________________ करना चाहिए उसका सबसे पहले ख्याल रखना चाहिए। निषेधात्मक का त्याग करना बडा सरल है । एक मिनिट का काम है । समय कम लगता है । और छोड देने से... तुरंत बच जाते हैं । परन्तु विधेयात्मक को करने में समय काफी ज्यादा बीत जाएगा। तब तक यदि निषिद्ध प्रवृत्तिओं को कोई करता ही रहा तो विधेयात्मक करने के पहले तो वह काफी बिगड चुका होगा। अतः निषिद्ध क्या-क्या है? उसका पहले विचार कर यथाशीघ्र उसका पालन कर ही लेना चाहिए। . पाप निषेधात्मक है पाप का मार्ग सदा ही निषेधात्मक है। पाप तीनों काल में ही अनाचरणीय त्याज्य वर्ण्य होता है । किसी भी धर्म में हिंसादि पाप करने की अनुमति शास्त्रों में होती ही नहीं है। और यदि कोई भी धर्म हिंसादि पाप की अनुमति देता है तो वह धर्म ही कहलाने योग्य नहीं रहता है । धर्म की शुद्ध व्याख्या से वह बाहर निकल जाता है । अतः कोई भी धर्म, धर्मशास्त्र कोई भगवान ईश्वर या गुरु भी पाप प्रवृत्ति को करने की आज्ञा दे ही नहीं सकते हैं । देना उचित ही नहीं है । इस प्रकार की आज्ञा देने से उनके अस्तित्व में क्षति आएगी। यह समझ में नहीं आता है कि वेदादि धर्मशास्त्रों में यज्ञ-यागादि में गाय-अश्व आदि की हिंसा की आज्ञा कैसे दे दी? क्यों दी? किसी भी दृष्टि से सुसंगत नहीं लगता है फिर भी ऐसी वेदाज्ञा को ही ब्रह्माज्ञा मानकर धर्मरूप मानना कहाँ तक उचित है? पाप की अधर्मात्मक बातों को धर्म की ढाल के नीचे डालकर धर्म के नाम पर खपाना-बढाना यह घातक प्रवृत्ति है । जो धोखादायक है । अतः धर्म को सदा सर्वदा शुद्धतम रखने के लिए अधर्मांश, पापात्मक अंश को सर्वथा दूर करना ही उचित है । हिंसादि १८ प्रकार के पापों से उनके अंशों के मिश्रण-सम्मिश्रण से धर्म सर्वथा अशुद्ध हो जाएगा। अतः शुद्ध धर्माचरण करने के लिए धर्म का भी पूर्ण शुद्धतम स्वरूप लक्ष्य में रखना चाहिए। . सर्वप्रथम हिंसादि पापस्थानकों की प्रवृत्तियों का त्याग करना ही चाहिए। विधेयात्मक धर्म पहले करने की अपेक्षा निषेधात्मक पापों का सर्वथा त्याग पहले करना ही लाभदायी है। उचित है। यदि आप निषिद्ध पापों का त्याग नहीं करते हो और विधेयात्मक बडे बडे धर्म की उपासना भी करते हो और ऐसे समय में निषिद्ध पाप की प्रवृत्ति करने से व्यक्ति भी बदनाम होती है। और धर्म, धर्मगुरु, धर्मशास्त्र, धर्मप्रवर्तक भगवान आदि सभी बदनामी लोकनिंदा के भाजन बनते हैं । अतः पापत्याग ही श्रेष्ठ धर्म की उपमा प्राप्त करता है। ५९४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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