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________________ ११) द्वेष— वैर-वैमनस्य, दुर्भाव से दुश्मनी आदि द्वारा द्वेष जगता है। जैसे साँप और नेवले में, चूहे-बिल्ली में जन्मजात द्वेष रहता है । चित्र में दोनों को लडते हुए बताए हैं। वैसे मनुष्यों को किसी भी जड़- -चेतन पर भयंकर द्वेष-दुर्भाव होता है। जो कई पापों की as है । यह ११ वाँ पापस्थानक है । १२) कलह — झगडा - टंटा- मारामारी आदि कलह-कंकास के रूप में १२ वाँ पापस्थानक बताया गया है। चित्र में लडने का प्रतीक दिखाया है । बात-बात में किसी के भी साथ झगडना यह भी पाप है। सभी कषायों का यह सम्मिलित रूप है । अतः यह भी वर्ज्य है । १३) अभ्याख्यान — किसी पर कलंक लगाना, आरोप लगाना इसे अभ्याख्यान कहते हैं। अपनी वस्तु- धनादि की चोरी आदि के निमित्त किसी निरपराधी पर भी आरोप लगाना यह गलत है । चित्र में एक सन्नारी सती स्त्री पर आरोप लगाती वृद्धा दिखाई गई है । यह 1 पापस्थान है I १४) पैशुन्य — किसी के विषय में चाडी - चुगली करना । कानाफूसी करना नारदीवृत्ति से इधर की बात उधर करना, निरर्थक किसी को लडाकर स्वयं राजी होना आदि पैशुन्यवृत्ति का पाप कहलाता है । चित्र में एक स्त्री दूसरी स्त्री के कान में कहकर आग भडकाती है । शंका खडी करती है । . १५) रति- अरति — पसंद-नापसंद, अनुकूल-प्रतिकूलादि सेंकडों निमित्तों को रखकर वैसे करना यह रति- अरति नामक पापस्थान है। मनपसंद प्रिय पदार्थ की प्राप्ति में हर्ष करना, अप्रिय की प्राप्ति में शोक करना, यह वृत्ति भी १५ वाँ पापस्थान है । इनके भाव चित्र में अंकित है । 1 अन्य व्यक्ति परिवार आदि किसी के भी बारे में १६) पर परिवाद - ( निंदा) पर बेबुनियाद निरर्थक बातें करना । फिजूल बातें करना । हो न हो फिर भी बिना आधार की निरर्थक बातें बढाना, फैलाना । या किसीकी अपकीर्ति के लिए भी वैसी निंदादि करना, बदनाम करना, यह निंदा-परपरिवाद का पाप है । - - १७) माया मृषावाद— दूसरे पापस्थान और १७ वें में फरक यह है कि इसमें माया—कंपट—विश्वासघात - दगाफटका की ठगवृत्ति पूर्वक झूठ बोला जाता है । इस मायावी कपटी असत्य को १७ वें पापस्थानक के रूप में गिना है । १८) मिथ्यात्वशल्य — मिथ्यात्व के कारण आत्मा-परमात्मा - मोक्षादि तत्त्वभूत पदार्थों प्रतिविपरीत वृत्ति को रखना । जैसे किसी के पैर में काँच - काँटा फस जाय और न देश विरतिधर श्रावक जीवन ५९१
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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