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________________ ४) अब्रह्म (मैथुन) सेवन ब्रह्म = आत्मा, ब्रह्मचर्य आत्मचिन्तन में लीन रहना । अ निषेधार्थ में जुडा है अतः अब्रह्म शब्द बना । अर्थात् आत्म-परमात्म-चिंतन सब छोडकर - भूलकर - अन्य स्त्री ( या पुरुष) के साथ विषय-वासना की कामसंज्ञा से मैथुनसेवन करना यह चौथा पापस्थानक है । चित्र में परस्त्रीगमन करता एक युवक दर्शाया गया है । = ५) परिग्रह चारों तरफ से दुनियाभर की लाखों वस्तुओं का अति संग्रह करना यह परिग्रह है। चाहे वस्तु की उपयोगिता हो या न भी हो, आवश्यकता - अनिवार्यता न होते हुए भी अतिशय संचय करते ही जाना यह परिग्रह का पाँचवाँ पापस्थानक है। चित्र में एक अलमारी में धन संग्रह करता शेठ दिखाया गया है । ६) क्रोध— क्रोध के प्रतीक रूप में यहाँ साँप का चित्र है । साँप क्रोध करके अपना विष उगलकर किसीको मार देता है। इस तरह क्रोध अविवेकी रहता है। हिंसक भी बनता है । अतः इस पापस्थान को समझना है । ७) मान— हाथी मान अभिमान सूचक प्राणी है। अतः चित्र में इसका प्रतीक है। बडी मदवाली चाल चलकर हाथी ने अपने अहंकार को व्यक्त किया है। ठीक वैसे ही अभिमान कषाय का भूत मानवी के सिर पर हावी हुआ रहता है। वह अपने अहंकार में कुछ भी बकवास करता रहता है। यह पाप भी वर्ज्य है । - ८) माया — चित्र में दिखाए गए बगले को देखिए। आप जानते ही हैं कि यह सरोवर के बीच पत्थर की तरह कितना स्थिर खड़ा रहता है, ऐसा लगे जैसे कोई गहन ध्यान में हो । लेकिन जैसे ही मछली आई कि फट से खा जाता है । दिखाव कुछ अलग और काम कुछ अलग इसे माया-कपट कहते हैं। यह आठवाँ माया नामक पापस्थान है । ९) लोभ - चित्र में एक चूहा भी सुवर्णमुद्रा मुँह में लेकर भागता हुआ दर्शाया है। सोचिए ! चूहा सुवर्णमुद्रा को क्या करेगा ? लेकिन मन में जो लोभ संज्ञा बडी तीव्र पडी हुई है उसके कारण ऐसा करता है । मानव मन या जगत् के सभी जीव लोभ के पाप से ग्रस्त हैं। सेंकडों वस्तुओं का लोभवृत्ति से संचय करना यह पाप है । लोभ सब पाप का बाप है। १०) राग - चित्र में राग के प्रतीक रूप में एक स्त्री दर्शाई है। रूप रंग - सोलह शृंगार सजी स्त्री जिस तरह अपना मोहक रूप दिखाकर किसी भी पुरुष को आकर्षित करती है, अपनी तरफ खींचती है, इस प्रेम के आकर्षण को राग कहते हैं। संसार की किसी भी वस्तु पर भी राग बनता है। शराब के नशे की तरह राग के ज्वरसे ग्रस्त जीव उसकी प्राप्ति के लिए लालायित बनता है । यह १० वाँ पापस्थान है । आध्यात्मिक विकार यात्रा ५९०
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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