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________________ मन ६) सोचने विचारने की शक्ति ५८२ कर्णेन्द्रिय कान (५) ३ ध्वनि का ज्ञान चक्षुइन्द्रिय- आँख ४) ५ रूप का ज्ञान घ्राणेन्द्रिय नाक ३) २ गंध का ज्ञान रसनेन्द्रिय-जी २) ५ रस का ज्ञान स्पर्शेन्द्रिय- चमडी | १) ८ स्पर्श का ज्ञान जो शरीर कर्म के उदय से ही मिलता है फिर मिलने के बाद अन्य प्रकार के कर्मादि के उदय से आगे के साधन प्राप्त होते हैं I I 1 संसार में जीव सभी सशरीरीशरीरधारी ही है । यहाँ तक कि निगोद की सूक्ष्मतम अवस्था में भी जीव शरीर धारण करके ही रहा हुआ है। पृथ्वी - पानी - अग्नि वायु-वनस्पति आदि सब में शरीरधारी ही है जीव । वहाँ एक स्पर्शेन्द्रिय मिली है जिससे स्पर्श का ज्ञान प्राप्त करते रहते हैं । फिर आगे बढ़ते-बढ़ते दूसरी इन्द्रियाँ रसनेन्द्रिय प्राप्त करता है । जीभ मिलती है। इससे पाँच प्रकार के रसों का ज्ञान होता है । खट्टे-मीठे - तीखे - तूरे और कटु इन पाँच रसों के स्वादादि का ज्ञान प्राप्त करता है । फिर स्वोपार्जित कर्मानुसार तीसरी घ्राणेन्द्रिय- नासिका प्राप्त होती है। तब सुगंध - दुर्गंध ग्रहण करना प्रारंभ करता है । और आगे बढने पर चौथी इन्द्रिय-चक्षु - आँख मिलती है । जिसके विषय रूप में लाल • पीला-हरा- काला- सफेद आदि पाँच प्रकार के रंगों का ग्रहण शुरु होता है। ज्ञान का प्रकाश प्रमाण में ज्यादा बढता है अन्तिम इन्द्रिय पाँचवी • कर्णेन्द्रिय- श्रवणेन्द्रिय के प्रतीक के रूप में कान प्राप्त होते हैं । इन कानों से ... आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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