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से लेकर पाँच इन्द्रियाँ मिली है । बोल-चालादि भाषां का व्यवहार करने के लिए वचन योग मिला है। और सोचने-विचारने में साथ देनेवाला आधारभूत मन मिला है । इस तरह आत्मा इनके त्रिकोण में रहती है । इन्द्रियाँ शरीर से अलग नहीं है। ये शरीर का ही एक अंग है । शरीर के ही खिडकी-दरवाजे रूप है । जैसे एक मकान में हवा-प्रकाश आने जाने के लिए खिडकी-दरवाजे होने अनिवार्य होते हैं ठीक वैसे आत्मा में ज्ञान के आने- के मार्ग के माध्यम के रूप में खिडकी-दरवाजे की तरह साधनभूत पाँच इन्द्रियों की व्यवस्था है। हाँ, सभी को समानरूप से एक सरीखी - एक जैसी सप्रमाण इन्द्रियाँ नहीं मिलती है। सभी जीवों के अपने अपने किये हुए कर्मों के आधार पर कम-ज्यादा इन्द्रियाँ मिलती है। इन्द्रियों की प्राप्ति में क्रम का मार्ग इस प्रकार बताया है
वचन
मन
आत्मा
काया
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यह इन्द्रियों की प्राप्ति के मार्ग में आगे बढने का क्रम हैं। इसी क्रम से एक के बाद एक इन्द्रियाँ प्राप्त होती है। सर्व प्रथम संसार में स्पर्शेन्द्रिय चमडी अनिवार्यरूप से सभी जीवों को मिलती है। पूरे शरीर पर चमडी का आवरण रहता है। बिना शरीर के तो संसार कोई जीव रह ही नहीं सकता है। बिना शरीर का जीव अशरीरी कहलाता है । अशरीरी अवस्था एक मात्र मोक्ष में ही होती है। संसार में कदापि नहीं । यदि संसार में भी सर्व प्रथम अवस्था में जीव को अशरीरी मानें तो मुक्तात्मा की आपत्ति आएगी । और मुक्तजीव बाद में कर्मग्रस्त होकर पुनः संसारी बनता है ऐसी आपत्ति आएगी। सिद्धान्त गलत सिद्ध होगा । तब तो कोई भी आत्मा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त रह ही नहीं सकेगी । फिर वापिस कर्मग्रस्त होकर सशरीरी बन जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं है। शाश्वत सिद्धान्त ऐसा है कि . एक बार अशरीरी बन जाने के पश्चात् पुनः कोई सशरीरी नहीं बनता है । एकबार स कर्म मुक्त हो जाने के पश्चात् वापिस कोई कर्म बांधता ही नहीं है । क्योंकि सर्व कर्म रहित अशरीरी आत्मा के पास कर्म बांधने योग्य साधनभूत शरीर मन-वचन- - इन्द्रियादि एक भी साधन नहीं है, अतः मुक्तावस्था में पुनः कर्म बांधने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता है ।
देश विरतिघर श्रावक जीवन
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