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________________ अतः पालन करना या वैसा सही आचरण करना उसके लिए असंभव है। हाँ, मायावी नाटक को करता हुआ आपके सामने हाँ हाँ कर देगा, परन्तु थोडी देर जब तक आप देखेंगे वहाँ तक सीधा काम करेगा, बाद में जैसे ही आप हटे कि तुरंत वह अपनी वृत्ति के आधार पर काम घसीट कर पूरा कर देगा। भले ही जीवों की हिंसा ले जाय तो होने देगा। उसे श्रद्धादि कुछ भी न होने का यह परिणाम है। पाँचवे गुणस्थानक का स्वरूप____ चौथे गुणस्थानक का नाम अविरत सम्यग् दृष्टि था । वहाँ सर्वप्रथम जीव अनादि मिथ्यात्व को छोडकर सम्यग् दृष्टि बना । अभी दृष्टि बदली है। विचारधारा बदली है। परन्तु आचार के क्षेत्र में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ है । किसी भी प्रकार से विरति नहीं आई है। पापों का त्याग ऐसी विशेष विरति-व्रतादि नहीं आए। अतः चौथे गुणस्थानक पर जीव अविरतिधर ही रहा । अब पाँचवे गुणस्थान पर आकर पापों का त्याग करने का कार्य प्रारंभ किया और परिणाम स्वरूप विरति में आने लगा। फिर भी पापों का सदा के लिए सर्वथा संपूर्ण रूप से त्याग करने का प्रबल सामर्थ्य न होने के कारण कुछ थोडे प्रमाण में ही पापों का त्याग करने लगा। अतः इस पाँचवे गुणस्थानक का नाम देशविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थानक रखा गया है। पाँचवे गुणस्थानक को विरत सम्यग् दृष्टि गुणस्थानक कहा है। अतः विरति यहाँ प्रारंभ हो जाती है । पापों की विरक्तिमहत्वपूर्ण है । विरक्ति अर्थात मँह फेर लेना । किससे? पापों से सर्वथा मुँह फेर लेना। विरक्ति अर्थात् वैराग्य । जैसे कोई वैरागी बन जाता है उसका संसार से मन उठ जाता है । अब ज्यादा रागभावना संसार के सुखों-भोगों के प्रति नहीं रहती है । वह उनके सामने देखना भी छोड़ देता है । उसे विरक्ति कहते हैं। वैसी विरक्ति जीव.की पापों की तरफ हो जानी चाहिए । बस, पाप पसंद ही न आए । पाप करने में रुचि-इच्छा ही न रहे। यह पापों की विरक्ति मन को पापकों से बचाकर रखनेवाली शुभ वृत्ति है । ऐसी विरति की भावना एवं आचारधर्म में वैसा भाव लाकर वैसा आचरण करना यह पाँचवे गुणस्थानक का स्वरूप है। तीन योगों के बीच आत्मा____ यद्यपि अनादि-अनन्तकाल तक जीव पाप करता ही रहा है । बीते हुए अनन्त जन्मों में से एक भी जन्म जीव का ऐसा खाली नहीं गया कि, जहाँ जीव ने पापप्रवृत्ति न की हो। आत्मा को इस संसार में जीने रहने के लिए आधारभूत शरीर मिला है। शरीर में एक ५८० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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