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________________ विपरीत ही बनी हुई थी। अतः कुछ भी नहीं कर सकता था । जब सम्यग् दर्शन की प्राप्ति होती है तभी जीव मोक्षप्रेमी मोक्षप्रिय-मोक्षाभिलाषी बनता है । उसके बाद ही मुक्ति की दिशा में पुरुषार्थ करता है। अन्यथा सम्यक्त्व पाने के पहले मिथ्यात्व की कक्षा में मोक्षद्वेषी-मुक्ति के प्रति सर्वथा द्वेष-दुर्बुद्धिवाला ही बना रहा था। ऐसी स्थिति में मोक्ष प्राप्ति की दिशा में किसी भी प्रकार की अनुरूप प्रवृत्ति संभव ही नहीं बनी । यह भूमीका मिथ्यात्व के सर्वथा नाश और सम्यग् दर्शन की प्राप्ति के बाद ही संभव बनी। विकास क्षेत्रीय सोपान आध्यात्मिक विकास के सोपानों पर चढती हुई आत्मा सर्वप्रथम महामिथ्यात्व की तीव्रता की कक्षा में से मन्दता की कक्षा में आई । मन्द-मन्दतर-मन्दतम की कक्षा में आकर अपुनर्बंधक-आदिधार्मिक की कक्षा का श्रीगणेश किया। अर्थात् शिशुशाला में प्रवेश करके नामांकन कराया। फिर यथाप्रवृत्तिकरणादि तीन करण करके ग्रन्थिभेद करके सम्यग् दर्शन रूपी अमूल्य रत्न की प्राप्ति की। तीनों करण की यह सारी प्रक्रिया पहले मिथ्यात्व के स्थान पर ही हुई हैं। अतः मिथ्यात्व को भी पहले गुणस्थानक की गणना में गिना है। आरंभ शुरुआत वहाँ से है । अतः ४ थे गुणस्थान पर सम्यग्दर्शन पाकर जीव श्रद्धालु-बनता है। अब आगे का पाँचवा गुणस्थान चढकर विकास की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ता है। अभी जीव यहाँ तक पहँचा है। अभी आगे बहुत बढना है। मंजिल काफी दूर है। लेकिन एक बार जो मार्ग पर आ जाता है और चलने की क्रिया प्रारंभ कर देता है उसके लिए मंजिल दूर नहीं है । परन्तु जो सदाकाल घर में ही बैठा रहे ऐसे मिथ्यात्वी जीव के लिए मंजिल कभी भी पास आ ही नहीं सकती है। क्योंकि मिथ्यात्वी जीव मुक्ति की मंजिल प्राप्त करने की दिशा में सर्वथा निष्क्रिय है । मात्र निष्क्रिय ही नहीं अपितु विपरीत प्रवृत्ति करने में सक्रिय होने के कारण मुक्ति की मंजिल से और दूर-सुदूर ही भागता जाता है । परिणाम स्वरूप अन्तर बढता ही जाता है। जबकि सम्यग् दृष्टि साधक के लिए मुक्ति का अभिलाष-मुक्तिप्रेम बहुत अच्छे प्रमाण में बढ गया है। मात्र बढा ही नहीं अपितु सतत जागृत रहता है । उपयोग भाव में सतत दूध पर मलाई की तरह, या पानी पर घी की तरह तैरता हुआ दिखाई देता है । सम्यक्दृष्टि जीव की प्रत्येक प्रवृत्ति में भेद बराबर दिखाई देगा। जीव स्पष्टरूप से पाप से बचने की भावना रखेगा। यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीव ४ थे गुणस्थान पर पाप न करने के पच्चक्खाणवाला नहीं है । फिर भी पाप करने की तीव्रतावाला, तीव्र इच्छावाला नहीं है। पापभीरु होता है सम्यग् दृष्टि जीव । वंदित्तु सूत्र में कहा है कि ५७८. आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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