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४) अन्तिम चौथे प्रकार के जीव भी संसार में है जो गुणों के बारे में कभी भी कुछ भी नहीं सोचते हैं, और दोषों के बारे में भी नहीं । अर्थात् इस प्रकार के जीव गुणवृद्धि के लिए प्रयत्नशील नहीं है, और दोषों का क्षय करने के प्रति भी प्रयत्नशील नहीं है । विचारक ही नहीं है।
इन चार प्रकार के जीवों में एकमात्र दूसरे प्रकार के जोव ही सच्चे साधक हैं। मोक्षगामी हैं। मोक्षमार्ग पर अग्रसर होनेवाले हैं। सतत गुणों की वृद्धि के लिए और निरंतर दोषों के क्षय के लिए प्रयत्नशील हैं । पुरुषार्थ करते ही रहते हैं। शेष तीन प्रकार के जीव.. साधक कक्षा के नहीं हैं । विराधक हैं । गुणों की तरफ कोई लक्ष ही नहीं है। अभी भी दोष बहुल वृत्तिवाले हैं । दोषों को बढाने से संसार की वृद्धि होगी। और दोषों को क्षीण करने से संसार भी क्षीण होगा । परिणामस्वरूप मुक्ति संभव होगी। मोहनीय कर्म जन्य घातक दोष. आत्मा पर लगे ८ कर्मों में से एक मोहनीय कर्म इतना प्रबल है कि.. उसने आत्मा के ९०% गुणों को ढक दिया है । दबा दिया है । मात्र गुणों को दबाया इतना ही नहीं दोषों को बहुत बढा दिया है । राग-द्वेष-क्लेश-कषाय आदि सेंकडों दोषों को बढ़ा दिया है । क्षमा-समता, नम्रता, सरलता, संतोष, करुणा, निर्लोभ, सर्वजीव प्रति प्रेम दया-दानादि सेंकडों प्रकार के गुणों को एक मात्र मोहनीय कर्म ने दबा दिया है । ढक दिया है । अरे, मात्र ढक ही नहीं दिया है, उसे विकृत कर दिया है । जैसे अमृत को भी गटर का पानी अशुद्ध-गंदा कर दे वैसा कर दिया है । या जैसे अत्तर को भी गटर के गंदे पानी में डाल देने से कैसी हालत होती है ? ठीक वैसी ही हालत आत्मा के गुणों की हो चुकी है । कर्मों ने गुणों का ऐसा गला घोंट दिया है कि अब उसमें से राग-द्वेषादि दोषों की ही गन्ध आती है । मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ गटर के गन्दे पानी जैसी हैं । ये आत्मा के क्षमा समतादि गुणों का घात कर देती है और राग-द्वेष-मोहादि के अनेक दोषों को बढा देती हैं। और संसार में जीव की स्थिति बरकरार रहती है। - साधक मोहनीय कर्मरूपी पर्वत के नीचे वर्षों से दबा हुआ है । वह पराधीन हो चुका है । कुछ भी कर नहीं पाता है । मोहनीय कर्म के घर के मूलभूत मिथ्यात्व मोहनीय की तीव्रता के उदय के कारण अमन्तकाल में भी जीव के कर्मक्षय करके गुणों का प्रादुर्भाव करने की विचारणा ही नहीं बनी । लक्ष्य बना ही नहीं । अतः उस जीवविशेष ने कभी भी इस दिशा में पुरुषार्थ किया ही नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व के कारण बुद्धि और वृत्ति सर्वथा
देश विरतिधर श्रावक जीवन
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