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आत्मा की विशुद्ध अवस्था । और दोष क्या है ? आत्मा की कर्मावरण सहित अशुद्ध अवस्था की प्रवृत्ति । अतः ये है एक ही सिक्के की दोनों तरफ की प्रवृत्ति । सिक्के की उजली बाजु देखें तो गुणों से भरी हुई है और दूसरी बाजु देखें तो कर्मों के काले मैल से मलीन हुई है, जिसके कारण दोषों का स्वरूप दिखाई देता है। चांदी स्वाभाविक चमकदार तेजस्वी है, सिर्फ उस पर वातावरण एवं हवामान के कारण कालीमा छा गई है । उस कालिमा के आवरण ने चांदी की चमकदमक-तेजस्विता को ढक दी है । आवृत्त कर दी है । यदि पुनः चांदी में चमकदमक लानी हो तो उस पर चांदी का पानी या ढोल चढाने की कोई आवश्यकता ही नहीं है, सिर्फ उस पर लगी कालिमा को दूर कर देने मात्र से वास्तविक चमकदमक-तेजस्विता प्रकट हो जाती है । है तो प्रकट हुई, नही होती तो कहाँ से आती? बस आवरणरूप कालिमा को घिसकर, साफकर हटाने मात्र से अन्दर के मूलगत धातुगत गुण अपने आप प्रकट हो ही जाएंगे। यही बात सोने-पित्तल या तांबे के लिए भी समानरूप से लागू होगी।
ठीक वैसे ही आत्मा धातु के जैसी है । इसपर भी कर्म का मैल लग जाने से कालिमा छाती है। और कर्म रूपी कालिमा से आत्मा काली–मैली मलीन दिखाई देती है। ऐसी अवस्था में दोषों की ही प्रवृत्ति होती रहती है। अब गुणों को प्रकट करने के लिए ...कोई आवश्यकता नहीं हैं कि उसपर पोलीश करें। या लीपापोती करें । जी नहीं । मैले कपडे पर चने की लीपापोती करने से कपड़ा साफ अच्छा नहीं होता है। परन्तु साबुन से धोकर साफ-स्वच्छ करने मात्र से अच्छा बन जाता है । अतः यह निश्चित सिद्ध होता है कि वस्तुगत वास्तविक गुणों को प्रकट करने के लिए एक मात्र गुणों पर लगे आवरण को दूर करना-हटाना ही श्रेष्ठ प्रक्रिया है । कर्मावरण के हटने से ही गुणों का प्रादुर्भाव होगा। अन्यथा असंभव है। ४ प्रकार के पुरुष
संसार में गुण-दोष की वृत्ति के प्रयलशील ४ प्रकार के पुरुष होते हैं।
१) गुणों की वृद्धि करना चाहते हैं परन्तु दोषों का क्षय करने की प्रवृत्ति नहीं करते हैं।
२) दूसरे प्रकार के जीव गुणों की वृद्धि करते हैं और दोषों का क्षय सतत करते रहते हैं।
३) तीसरी कक्षा के जीव गुणों की वृद्धि ही नहीं करते हैं सिर्फ दोषों की वृद्धि रात-दिन करते हैं। . . .
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आध्यात्मिक विकास यात्रा