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अध्याय १०
देश विरतिधर श्रावक जीवन
अनन्तानन्त उपकारी.. अनन्तानन्त अरिहंतों के अनन्त चरणारविन्द में अनन्तानन्त वंदनपूर्वक ...
सद्भिर्गुणदोषज्ञैर्दोषानुत्सृज्य गुणलवा ग्राह्याः ।
सर्वात्मना च सततं प्रशमसुखायैव यतितव्यम् ॥ ॥ ३११ प्रशम. ॥ पू. वाचकमुख्यजी उमास्वातिजी पूर्वधर महापुरुष प्रशमरति प्रकरण ग्रन्थ के अन्त में अपने हृदयोद्वारों के द्वारा शिक्षा देते हुए प्रकट करते हुए कह रहे हैं कि .... गुण-दोषों के ज्ञाता सज्जनों को चाहिए कि वे दोषों को छोडकर थोडे भी गुणों को ग्रहण करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करें। और प्रशम सुख की प्राप्ति के लिए सतत - अविरत प्रबल - पुरुषार्थ करना ही चाहिए ।
दोषक्षय और गुणवृद्धि
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मोक्षमार्ग की दिशा में आगे बढनेवाले प्रत्येक साधक के जीवन का मूलमन्त्र यही होना चाहिए कि ... दोषों का क्षय करूँ और गुणों की वृद्धि करूँ । कर्मजन्य दोष होते हैं. और आत्मगत गुण होते हैं। आज वर्तमान में हमारी स्थिति ऐसी है कि... जिसमें गुण-दोष दोनों की स्थिति मौजूद है । आत्मा का अस्तित्व है अतः आत्मगत गुणों का अस्तित्व सदा ही है । और कर्मसत्ता का भी अस्तित्व है ही... आत्मा संसार में अनादिकाल से कर्मग्रस्त -- कर्मबद्ध, कर्मसंसक्त ही है, अतः कर्मयुक्त होने के कारण कर्मजनित दोषों का अस्तित्व है ही । और जब तक आत्मा पर कर्मसत्ता का अस्तित्व रहेगा तब तक कम ज्यादा प्रमाण में दोषों का अस्तित्व भी निश्चित रूप से रहेगा ही । कार्य-कारणभाव संबंध है । अतः मात्र दोषों को ऊपर-ऊपर से दूर करने की प्रवृत्ति करने के बजाय मूलभूत जड़ कारण रूप कर्मों को सत्ता में से क्षय करने की प्रक्रिया हाथ में लेनी चाहिए ।
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आत्मा के ज्ञानादि तथा क्षमा-समतादि गुण तथाप्रकार के ज्ञानावरणीयमोहनीयादि कर्मों से दबे हुए हैं। ढके हुए आवृत्त हैं। गुण क्या है ? कर्मावरण रहित
देश विरतिधर श्रावक जीवन
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