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हार स्वीकार कर अंबड परिव्राजक एक श्रावक का रूप लेकर सुलषा श्राविका के घर पहुँचा और हाथ जोड़ते हुए, नतमस्तक होकर विनीत भाव से सुलषा को कहा कि हे देवी ! आपको भगवान महावीर ने धर्मलाभ कहलवाया है। यह सुनते ही सच्चे तीर्थंकर सर्वज्ञ प्रभु महावीर का नाम एवं उनकी तरफ से " धर्मलाभ” का सन्देश सुनते ही सुलषा हर्ष • विभोर होकर नाच उठी ।
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वास्तव में सुलषा सत्यशोधक यथार्थ तत्त्व रुचिवाली एवं शुद्ध सम्यग् दृष्टि श्राविका थी, जिसने सम्यग् दर्शन से अपना जीवन धन्य बनाते हुए, ऐसी अनुपम साधना की जिससे उसने तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन किया। आगामी चौबीसी में तीर्थंकर बनकर मोक्ष जाने का सौभाग्य प्राप्त किया। ऐसी एक विदुषी श्राविका के जैसी ही सम्यग् श्रद्धा हमें भी रखनी चाहिये, जिस से हम भी शुद्ध सम्यग् दृष्टि वाले बन सकें ।
अंध श्रद्धा और सम्यग् श्रद्धा
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श्रद्धा दो प्रकार की होती है— (१) सम्यग् श्रद्धा, (२) अंध श्रद्धा । सम्यग् ज्ञान जन्य श्रद्धा को सम्यग् श्रद्धा कहते हैं। ठीक इससे विपरीत अंध श्रद्धा में तत्त्व विषयक सम्यग् ज्ञान या तत्त्व रुचि आदि उत्पन्न नहीं होती है । परन्तु चमत्कारजन्य दुःख निवृत्ति एवं सुख प्राप्ति के निमित्तों से उत्पन्न हुई श्रद्धा अंध श्रद्धा कहलाती है। अंध श्रद्धालु व्यक्ति तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए या तत्त्वार्थ या यथार्थ, वास्तविक सत्यज्ञान के लिए कोई प्रयत्न या पुरुषार्थ नहीं करता है क्योंकि वह मूलतः तत्त्वरुचि जीव नहीं है । अतः वह आत्मा-परमात्मा मोक्षादि तत्त्वों में न तो ज्ञान ही सम्यग् रखता है और न ही सम्यग् श्रद्धा रखता है । अंध श्रद्धालु मात्र संसार का रागी एवं सुख लिप्सु जीव रहता है। येनकेन उपायेन दुःख निवृत्ति हो जाय और सुख की प्राप्ति हो जाये ऐसे निमित्तों को ही वह मानता है। चाहे ये कार्य भगवान के नाम से, देवी-देवताओं के नाम से या त्यागी - तपस्वी गुरुओं के आशीर्वाद से पूर्ण हो । परन्तु उसे देव-गुरु-धर्म की आराधना भक्ति या उपासना से जितना मतलब नहीं होता है, उससे ज्यादा सुख प्राप्ति का एवं दुःख निवृत्ति का उसका लक्ष्य होता है ।
शादी होना, संतानोत्पत्ति होना, सम्पत्ति की प्राप्ति होना, ऐश्वर्य भोगविलास के साधनों की प्राप्ति होना, यश, कीर्ति, प्रतिष्ठा, सत्ता आदि की प्राप्ति होना, इन्हीं सब सांसारिक सुखों सुख प्राप्त रूप मानकर वह बैठा है। अतः इनकी प्राप्ति के लक्ष्य से वह देव-गुरु-धर्म का भी उपयोग करता है । भगवान के दर्शन-पूजा-पाठ, यात्रा आदि एवं स्तोत्र पाठ, जपादि सम्यग् साधना को भी वह सुख प्राप्ति के लिए ही करता है ।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा