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सुलषा के सम्यक्त्व की परीक्षा
राजगृही नगरी की तरफ जाते हुए, अंबड नामक परिव्राजक केसाथ भगवान महावीर प्रभु ने सुलषा नामक श्राविका के लिए “धर्मलाभ” का आशीर्वाद भिजवाया और कहा, हे अंबड ! तुम राजगृही जाकर सुलषा नामक श्राविका को मेरो धर्मलाभ का सन्देश जरूर कहना । अंबड राजगृही गया परन्तु उसने मन में सोचा कि सुलषा कैसी औरत है ? यह कितनी बड़ी और महान् स्त्री है ? जिसे भगवान महावीर ने धर्मलाभ कहलवाया है । और किसी को नहीं परन्तु महावीर ने सुलषा को ही धर्मलाभ क्यों कहलवाया?
इस तरह ऊहापोह मन में करता हुआ अंबड परिव्राजक सुलषा की परीक्षा करने के लिये कमर कसता है । वह राजगृही नगरी के बाहर ब्रह्मा का रूप बनाकर लोगों को आशीर्वाद देने लगा। उसकी धारणा थी कि शायद इस प्रसिद्धि व प्रचार के कारण सभी के बीच सुलषा भी अवश्य आवेगी। हुआ ठीक इससे विपरीत । अपनी शक्ति से रूप बदलते हुए अंबड ने बाद में शंकर, कृष्ण, विष्णु इत्यादि के रूप धारण किए। उसने बहुत बड़ी मायाजाल खड़ी कर दी। नगर के हजारों लाखों लोग उसके आशीर्वादार्थ एवं दर्शनार्थ उमड़ने लगे। अंबड उनमें सुलषा को ढूँढने लगा। आखिर सुलषा न आई, सो नहीं आई। अन्त में थककर, परेशान होकर उसने तीर्थंकर का रूप बनाया और अपनी मायाजाल से समवसरण का रूप निर्माण किया। यह प्रचारित किया गया कि पच्चीसवें तीर्थंकर राजगृही नगरी में पधारे हैं और सबको धर्मलाभ दे रहे हैं । ऐसी खूब प्रसिद्धि सुनकर हजारों-लाखों लोगों की भीड़ जमने लगी, परन्तु इससे भी सुलषा टस से मस न हुई। सत्यवादी सम्यग् दृष्टि सुलषा जो कभी भी असत्य को सत्य एवं सत्य को असत्य कहने के लिए तैयार नहीं थी, सत्य सिद्धान्त शास्त्र के आधार पर विचार किया कि
तीर्थकर तो मात्र चौबीस ही होते हैं । पच्चीसवें तीर्थंकर न तो कभी हुए हैं और न कभी होंगे। इतना ही नहीं वरन् इस भरत क्षेत्र में एक समय में एक साथ दो तीर्थंकर कभी भी नहीं होते हैं । ऐसा सर्वज्ञ का वचन है । वर्तमान में जबकि चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी विद्यमान हैं, तब फिर पच्चीसवें तीर्थंकर के होने या आने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता है। भले ही समवसरण आदि की रचना क्यों न हो, परन्तु पच्चीसवें तीर्थंकर तो हो ही नहीं सकते हैं।
इस प्रकार अपने सम्यग् रूप सच्ची श्रद्धा से परीक्षा करके सुलषा श्राविका समवसरण की रचना सुनकर भी सर्वथा रंजमात्र भी विचलित न हुई और न गई । आखिर
सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द
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