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“कौए का बैठना और डाली का गिरना" ऐसे आकस्मिक निमित्त की तरह वह देव-गुरु-धर्म की साधना से चमत्कारिक निमित्तों को मानकर उन में अंध श्रद्धा रख लेता है। और उनकी उपासना इसी हेतु को सिद्ध करने के लिए करता रहता है । देव-देवियों के पास जाकर सन्तान या सम्पत्ति प्राप्ति हेतु मानता या आखड़ी रखता है । लॉटरी खुल जावे, इसके लिए वह देव-गुरु के आशीर्वाद प्राप्ति हेतु प्रयत्न करता है । चमत्कार करने वालों के पीछे वह अंधश्रद्धा से भागता-फिरता है । वीतराग भगवान और त्यागी तपस्वी गुरुओं को एवं देव-देवियों को वह अपनी इच्छापूर्ति का निमित्त एवं आधारभूत कारण मान लेता है। इसी तरह वह शंख, श्रीफल आदि कई प्रकार की विधियों में आशा रखकर अंधश्रद्धा से भागता रहता है। ___ जिन देव-गुरु-धर्म का उपयोग संसार निवृत्ति, भक्-मुक्ति एवं आत्म कल्याण तथा कर्म-क्षय (निर्जरा) रूप, आत्म शुद्धि के लिये था, उनका उपयोग अंधश्रद्धालु व्यक्ति ने सांसारिक दुःख निवृत्ति तथा भौतिक, पौगलिक, वैषयिक सुख प्राप्ति के लिए किया । यहाँ जाने से सुखी बनूँगा, इनसे मेरी इच्छा पूर्ति होगी, उनसे आशा फलीभूत होगी, ऐसी अंधश्रद्धा की विचारधारा में वह, यहाँ-वहाँ भागता-फिरता है । जो भी देव हो, वह उनके सैकड़ों मन्त्रों का जाप करता रहता है । वह यहाँ-वहाँ किसी भी देव के पास जाता रहता
इस प्रकार की सम्यग् तत्त्व-ज्ञान रहित अंध-श्रद्धा का पतन एवं परिवर्तन जल्दी हो सकता है, उसे कोई भी जल्दी से बदल सकता है, क्योंकि ज्ञानजन्य श्रद्धा न होने के कारण वह कभी भी अपनी श्रद्धा से च्युत हो सकता है। इसलिए सही एवं सच्ची श्रद्धा को महापुरुषों ने सम्यग्-तत्त्वज्ञान जन्य बताई है । आत्मा-परमात्मा, मोक्षादि तत्त्वों के यथार्थ, वास्तविक ज्ञानजन्य सम्यग् दर्शन रूप सच्ची श्रद्धा को ही सम्यग् श्रद्धा कहते हैं । यही सम्यग श्रद्धा देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा, उनकी आराधना या उपासना सम्यग कराती है। आचरण भी सही होता है। उनकी उपासना कर्मक्षय रूप निर्जरा-प्रधान एवं आत्म-कल्याणकारी होती है । ऐसे सम्यग्दर्शन से ही भवमुक्ति, संसारमुक्ति, आत्मशुद्धि एवं मोक्षसिद्धि मिलती है। ___ सम्यग् दर्शन की अनिवार्यता पर जोर देते हुए श्री वीर प्रभु ने यहाँ तक कह दिया है कि
दसण भट्ठी भट्ठो, दंसण रहिया न सिज्झई। चरण रहिया सिज्झई, देसण रहिया न सिज्झई॥ -उत्तराध्ययन सूत्र
सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द
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