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पर्वत पर चढे.. तो अपने आप अपने अंतस्थ चित्त में से आठों दृष्टियोंरूपी सरिता को बहती हुई स्वयं देख सकेगा। अतः इन तीनों योगों का स्वरूप समझना चाहिए। (१) इच्छायोग-सद्धर्म-शुभधर्म का पूर्ण रूप से आचरण करने की स्वयं मनोगत सच्ची इच्छा को इच्छायोग कहते हैं । ऐसी इच्छावाले ज्ञानी पुरुष का विकलादि प्रमाद के कारण विकल जो धर्मक्रियारूप व्यापार (योग) को इच्छायोग कहते हैं। ऐसे इच्छायोग में १) धर्म करने की तीव्र इच्छा होती है । २) श्रुतज्ञान होता है, ३) सम्यक्त्वभाव होता है, और ४) प्रमाद भी होता है। (२) शास्त्रयोग-शास्त्र प्रधान योग को शास्त्रयोग कहते हैं । अप्रमत्त योगी का शक्तिपूर्वक श्रद्धालु का आगमशास्त्रवचनानुसारी जो अविकल धर्मव्यापार है उसको शास्त्रयोग कहते हैं । शास्त्रयोगी- १)श्रद्धावंत होता है; २) अप्रमत्त होता है, ३) तीव्र शास्त्रवेत्ता, ज्ञानी होता है, ४) और यथाशक्ति शुद्धक्रिया करनेवाला होता है। ... (३) सामर्थ्ययोग-शास्त्र में जिसका उपाय दर्शाया गया है, और उस शास्त्र से भी ज्यादा जिसका विषय शक्ति के उद्रेक से बढ गया हो, ज्यादा हो जाता हो उसे सामर्थ्ययोग कहते हैं । यहाँ पर शास्त्र की प्रधानता के बजाय आत्मा के सामर्थ्य शक्ति की प्रधानता है । शास्त्र दिशासूचन मार्गदर्शन जरूर करता है..स्वरूप वर्णन करके समझा देता है परन्तु उस पर चलने का सामर्थ्य तो जीव में ही होना चाहिए। जो जीव स्वयं अपनी शक्ति प्रकट करके पुरुषार्थ करता हुआ आगे बढे तो..धीरे..धीरे..ऊपर..ऊपर के गुणस्थानों के पद को प्राप्त कर सकता है। और इस तरह अपनी शक्ति स्फुरित करते हुए आगे बढकर शास्त्र ने जिन अनुभवादि का वर्णन नहीं भी किया है ऐसे अनोखे-अद्भुत आगे के अनुभवों को योगी प्राप्त करता है । अगोचर अनुभव प्राप्त करता है। अब आत्म सामर्थ्य ही प्रबल बनता है । इसी की प्राधान्यता रहती है। . .
इस सामर्थ्य योग के दो प्रकार हैं- १) धर्मसंन्यास और २) योगसंन्यास।
१) प्रथम धर्मसंन्यास योग का विचार करते हैं- धर्म क्षमादि धर्म जिन जिन कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं ऐसे क्षायोपशमिक भावों के क्षमादि धर्मों का त्याग करना = संन्यास धर्मसंन्यासरूप सामर्थ्य योग कहलाता है। संन्यास शब्द का अर्थ यहाँ छोडना-त्यागना लिया है । शायद आप को धर्म संन्यास की व्याख्या में क्षमादि भावों का त्याग करना इन शब्दों से आश्चर्य जरूर होगा। परन्तु क्षायोपशमिक और क्षायिक भाव की भिन्न भिन्न विशेषताओं को समझिए। क्षपकश्रेणि जिसने प्रारंभ कर दी है ऐसा साधक योगी कर्मों का क्षय करने की प्रक्रिया से चारों घाति कर्मों का संपूर्ण क्षय करता
सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द
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