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परा |८ प्रवृत्ति - आसंग
प्रभा - कान्ता |७ प्रतिपत्ति - रोग , स्थिरा १६ मीमांसा - अन्यमुद् - दीपा ५ बोध - भ्रान्ति बला४ श्रवण - उत्थान
इस तरह दोषों के क्षय से एवं गुणों के विकास से एक-एक दृष्टि के विकास पूर्वक मोक्षमार्ग के सोपानों को चढती हुई आत्मा का आध्यात्मिक विकास होता है। अतः साधक को साधना के मार्ग में इस प्रक्रिया का अच्छी तरह ख्याल रखना चाहिए। यही साधक की समझ पूर्वक की, ज्ञानपूर्वक की सही साधना होगी। दोषक्षय और गुणप्राप्ति अनिवार्य है। ये साधना के फलस्वरूप है । साथ ही साथ विकास के सहायक अंग है। साधक अपना लक्ष बना ले और विकास के लक्ष्यबिंदु को प्राप्त करना ही है ऐसे दृढ निर्धार पूर्वक प्रगति करता ही रहे तो सिद्धि हस्तगत होनी सुलभ है। संभव है।
२ शुश्रूषा और श्रवण - उत्थान
२ जिज्ञासा.
२ जिज्ञासा - उद्वेग १ अद्वेष गुण- खेद दोष त्याग
मित्रा
तीन योगों का स्वरूप
शास्त्रकार महर्षियों ने ३ योगों का स्वरूप बताया है- १)इच्छायोग, २) शास्त्रयोग, ३) सामर्थ्ययोग। इन तीनों योगों का माहात्म्य बताते हुए महापुरुषों ने यहाँ तक कहा है कि.. मित्रा–तारादि आठों दृष्टियाँ रूपी नदियाँ इन्हीं तीन योगों रूपी पर्वतों से निकलती है । अतः इन तीनों योगों को हिमालय के जैसे पर्वत की उपमा दी है। आत्मा यदि इन तीनों योगरूपी
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आध्यात्मिक विकास यात्रा.
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