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________________ उपस्थिति अनिवार्य रूप से रहेगी । परन्तु ऊपर के कोई दोष रहे तो नीचे के दोष नहीं भी रहेंगे। अतः तत्त्वजिज्ञासु-मोक्षगामी आगे बढनेवाले आत्माओं को इन दोषों का स्वरूप समझकर अवश्य टालने चाहिए। जैसे जैसे इन ८ दोषों का क्षय होगा वैसे वैसे एक एक दृष्टि बनेगी-विकसित होगी और जीव का विकास होगा। ८ दोषोंके त्याग के आधार पर ८ दृष्टियों के विकास की प्रक्रिया__इन दोषों में ऊपर-ऊपर के दोष बडे भारी हैं। विकासोन्मुखी प्रगतिशील.आत्मा जैसे-जैसे आगे बढती है वैसे-वैसे एक एक दोष छोडकर कम करते हुए आगे बढे तो एक एक दृष्टि अच्छी खुलती है। विकसित होती है। अतः साधना के मार्ग में अवरोधक बाधक बनकर बीच में रोडे डालने आते हुए ८ दोषों का निवारण करना-टालना साधकात्मा के लिए हितकारी है। अतः वयं-त्याज्य इन दोषों को त्यागकर गुणों का प्रादुर्भाव करना चाहिए। आठ गुणों का स्वरूप उपरोक्त जो ८ दोषों का स्वरूप समझा है उनसे ठीक विपरीत ये ८ गुण हैं । दोषों के क्षय होने से ८ गुणों की प्राप्ति होना विकास की दिशा में सहायक है । १. अद्वेष, २. जिज्ञासा, ३ . सुश्रुषा, ४. श्रवण, ५. बोध, ६. मीमांसा, ७. प्रतिपत्ति, ८. प्रवृत्ति ये ८ गुण १) अद्वेष-तत्त्व के प्रति द्वेषभाव-मात्सर्य भाव न होना वह अद्वेष । २) जिज्ञासा- तत्त्व के स्वरूप को यथार्थ जानने की तीव्र अभिलाषा-रुचि । ३) सुश्रुषा- तत्त्वभूत पदार्थों को सुनने की लालसा, सुनने जाना। ४) श्रवण-तत्त्व की रुचिकर व्याख्याओं आदि का नित्य श्रवण करना। ५) बोध-तत्त्व का बोध-ज्ञान-समझ बढना-बढाना । ६) मीमांसा-तत्त्व के बोध का सूक्ष्म चिंतन करना, विचार-विमर्श करना। ७) प्रतिपत्ति-तत्त्व की उपादेयता—आचरण योग्यता अंतर से स्वीकारना। ८) प्रवृत्ति-तत्त्व का आचरण करते हुए आत्मस्वभाव में रमणता रखना। ये ८ गुण आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में उपयोगी सिद्ध होते हैं। इन गुणों के । विकास से मित्रादि दृष्टियों का भी विकास होता है । दोषों का त्याग-शमन होता है सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द ५६१
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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