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________________ ऐसा धर्मक्रिया की अवगणनारूप अन्यमुद् दोषादि... धर्मक्रिया में से इच्छितफल प्राप्त करने में अग्नि की बारिश समान है। ७) रोग-राग-द्वेष-मोह ये त्रिदोष रूप महारोग-भावरोग है। सच्ची समज शक्ति के बिना, ज्ञानरहित क्रिया करने से, भावरहित क्रिया के करने से शुद्ध क्रिया का उच्छेद हो जाता है। अतः शुद्ध क्रिया को पीडा या अंगरूप रोग प्राप्त होने से ऐसी रोगिष्ट क्रिया भी निष्फल चली जाती है। ८) आसंग-शुभ धर्मानुष्ठान की क्रिया करते समय भी परभाव में आसक्ति होना यह आसंग दोष है। किसी एक क्रिया विशेष में ही दृढ राग हो जाने से एक ऐसे शुभ योग में ही आसक्त बन जाना,..ऐसे ही एक योग को बहुत ज्यादा अच्छा मानकर उसी में एकतान बन जाने से अन्य उपयोगी योगों में फिर प्रगति नहीं होती है। वैसा योगी महात्मा फिर आगे के अन्य गुणस्थानों पर अपनी प्रगति रोक देता है । उससे मुक्ति की प्राप्ति में अवरोध. पैदा होता है। ये ऊपरोक्त ८ दोष दर्शाएँ हैं। ये क्रमशः एक से दूसरा ज्यादा नुकसानकारक है। एक से दूसरा ज्यादा भारी है। अतः नीचे नीचे के दोष रहेंगे तो ऊपर के दोषों की |८ आसंग दोष त्याग परा , - प्रभा ७ रोग दोष त्याग ६ अन्यमुद् दोष त्याग कान्ता , स्थिरा ५ भ्रान्ति दोष त्याग . - दीपा - बला ||४ उत्थान दोष त्याग ३ क्षेप दोष त्याग तारा मित्रा | २ उद्वेष दोष त्याग O१ स्वेद दोष त्याग ५६० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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