________________
जागृति पूर्वक आठ दृष्टियों की आभ्यन्तर कक्षा निर्माण करके जीव को विकासोन्मुखी होना चाहिए । ८ दृष्टियाँ यमादि को मात्र कायिक नहीं रहने देगी...आध्यात्मिक विकास की दिशा में दृष्टियाँ योगांगों को सहयोगी-उपयोगी बनाएगी। परन्तु इस विकास की दिशा में प्रगति को रूंधनेवाले अवरोधक-बाधक ऐसे ८ दोष भी हैं। आठ दोष
शास्त्रकार महर्षिओं ने आठ दोष बताए हैं- १) खेद, २) उद्वेग, ३) क्षेप,४) उत्थान, ५) भ्रान्ति, ६) अन्यमुद्, ७) रोग, ८) आसंग। मनोविजय प्राप्त करने में ये ८ दोष भारी बाधक-अवरोधक बनते हैं। अतः उन्हें दूर करना ही चाहिए। १) खेद-शुभ अध्यवसाय-उत्साह भाव से प्रवृत्ति करते हुए थक जाना, थकान महसूस करना,खेद के कारण मन की दृढता, स्थिरता खत्म हो जाती है। और धर्म का मुख्य आधार दृढता है । जिस तरह मछली के लिए आधार पानी का है । खेती के लिए भी मुख्य आधार पानी का है। २) उद्वेग-शुभ धर्मानुष्ठान रूप धर्म क्रियाओं में उद्वेग आ जाना, इसके कारण उस धर्म क्रिया.में जैसे-तैसे करके पूरी करने की वृत्ति बनती है। ३) क्षेप-चित्त डगमगाता-अस्थिर रखना, क्रिया करते हुए... मन का बीच-बीच में इधर-उधर भागना, जिस तरह खेत में उगाई हुई फसल को बार-बार उखाड कर वापिस बोते रहने से वह फसल नष्ट हो जाती है, उसी तरह एक क्रिया में से बार-बार भागने वाले अस्थिर मन के कारण क्रिया का पूरा लाभ नहीं मिलता है। ४) उत्थान- शुभ धर्मानुष्ठान रूप जो भी धर्मक्रिया करते हैं उसमें से मन का उठ जाना, चित्त की स्थिरता का अभाव होना, ऐसी शुभ योगक्रियाएं छोड देने योग्य है ऐसे विचार आना । परन्तु लोक लज्जा से छोड नहीं सकता है । ऐसी क्रिया में शान्तवाहिता नहीं होती
५) प्रान्ति- यह भ्रमणारूप दोष है । शुभ धर्मानुष्ठान रूप क्रिया को छोडकर चित्त का चारों तरफ भ्रमण करना, क्रिया में भ्रान्ति होनी, जैसे छीप में चांदी की भ्रान्ति होती है वैसे ही तत्त्व में अतत्त्वपने की भ्रान्ति होना दोष है । अथवा क्रिया की न की ऐसी भ्रमणा होना। ऐसी भ्रान्तिपूर्ण क्रिया से इच्छित फल नहीं मिलता है। ६) अन्यमुद्-जिस समय जो जिस प्रकार की धर्मक्रिया चल रही हो उस समय उसी धर्मक्रिया में आनन्द पाने के बदले अन्य क्रिया में आनन्द लाना यह अन्यमुद् दोष है।
सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द
५५९