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________________ मुक्ति ५५८ समाधि ८ परा दृष्टि Lelka ७ प्रभा दृष्टि धारणा ६ कान्ता दृष्टि प्रत्याहार ५ स्थिरा दृष्टि → प्राणायाम ४ दीत्रा दृष्टि आसन ३ बला दृष्टि नियम २ तारा दृष्टि यम मित्रा दृष्टि (८) समाधि - ध्यानादि के अन्दर प्राप्त जो आत्मस्वरूप- परमात्मस्वरूप की यथार्थ उपलब्धि हुई है उसी में लीन बन जाना, तदाकार, तद्रूप, तन्मय बनकर तादात्म्यता लानी अर्थात् ध्यान में स्थिरता लाकर ध्याता ध्येयरूप एकता को प्राप्त कर जाय यह समाधि की अवस्था है । I यहाँ अपेक्षित अष्टांग का आंतरिक संक्षिप्त वर्णन उपरोक्त किया है । विषद वर्णन तो बहुत है । आध्यात्मिक विकास के सन्दर्भ में उपरोक्त अर्थ में आठों अंगों को देखना चाहिए। योग के ये आठों अंग उत्तरोत्तर विकास की दिशा में ऊर्ध्वगामी होते हुए ऊपर ही ऊपर बढते जाते हैं । इन में आठ दृष्टियों का आधारभूत साथ भी मिलता जाय तो विकास अच्छा होता है । क्रमशः ऊर्ध्वमुखी - ऊर्ध्वगामी - विकासोमुख अष्टांग योग का क्रम अष्टांग योगों के साथ आठ दृष्टियाँ मिल जाय और आधाराधेय भूत संबंध जन्य-जनक या कार्यकारण भाव संबंध के आधार पर दोनों में मेल बनाकर विकास की प्रक्रिया आगे बढानी चाहिए। अष्टांग योग की प्रक्रिया मात्र बाह्य - शारीरिक ही न रह जाय इसका ध्यान रखकर आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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