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________________ सयोग केवली क्षीण मोह परा उपशांत मोह सूक्ष्म संप > प्रभा● अनिवृत्त अपूर्वकरण कांता • अप्रमत्त. प्रमत्तसंयत •INGY & देशविरत अविरत e-t मिश्र सास्वादन → मित्रा, तारा, बला, दीप्रा Jerinary I दूसरी-तीसरी-चौथी में आगे बढते - बढते क्रमशः ... मिथ्यात्व की मन्दता - मन्दतरता आते आते ... जीव पाँचवी स्थिरा दृष्टि में पहुँच जाता है । यहाँ सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । शेष ४ स्थिरादि दृष्टियाँ तो है ही सम्यग् दर्शन की । इन चारो में सम्यक्त्वादि गुणों की ही प्राधान्यता रहती है । और चौथी से आगे बढ़ते-बढ़ते आठवीं परादृष्टि तक तो निर्वाण - मोक्ष की प्राप्ति भी हो जाती है । ८ योगदृष्टियों में १४ गुणस्थानकों का समावेश मित्रादि ४ दृष्टियों तक तो जीव की मिथ्यात्व की वृत्ति रहती है । यद्यपि की मात्रा मिथ्यात्व मन्द – मन्दतर- मन्दतम होती होती.. . शुद्ध कक्षा में आती है । अतः प्रथम गुणस्थान पर मित्रा दृष्टि से जीव प्रारम्भ होकर आगे बढता है । यद्यपि प्रथम ४ दृष्टियों में मिथ्यात्वी ही है फिर भी सम्यग् दर्शन की पूर्व भूमिकारूप होने के कारण ... बीजवपन होता है. . और आगे बढने की संभावना ज्यादा बढती है । परिणामस्वरूप विकास होता है । पाँचवी स्थिरा दृष्टि से .. सम्यग् दर्शन प्राप्त करके ऐसा श्रद्धालु जीव विकास के सोपान चढता हुआ सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द ५५५
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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