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८ वीं परादृष्टि की कक्षा में सहज निरतिचार-अतिचार-दोषरहित कक्षा प्राप्त की है अतः यहाँ पर प्रतिक्रमणादि क्रियात्मक अनुष्ठान की आवश्यकता ही नहीं रहती है। क्योंकि सतत ध्यान-साधना में रहनेवाला परा दृष्टिवाला विकल्परहित चिंतादि दुःखरहित होने से उसको दोष अतिचार लगने की संभावना ही नहीं रहती है। और अतिचार के अभाव में प्रतिक्रमणादि अनुष्ठानों की निरर्थकता-निरुपयोगिता सिद्ध होगी। जैसे पर्वत चढकर शिखर-चोटी पर पहुँच जानेवाले पर्वतारोही के लिए अब आगे और चढने का रहता ही नहीं है अतःचढने की क्रिया का सर्वथा अभाव रहता है ठीक वैसे ही परा दृष्टिवाला जीव स्वसाध्य को प्राप्त हो गया है । अतः अब ज्यादा आगे की चिन्ता ही नहीं है । अतः यह अवस्था प्रवृत्तिप्रधान नहीं निवृत्तिप्रधान रहती है। अतः अतिचार के अभाव में प्रतिक्रमणादि क्रिया का अभाव रहना स्वाभाविक है । यहाँ जीव घातिकर्म रूप योग से दूर हो जाता है.. और आगे कैवल्य-सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है,। और अन्त में.. निर्वाणपद की प्राप्ति होती है। क्योंकि ४ घाती कर्मों के क्षय हो जाने के पश्चात् सिर्फ ४ अघाती कर्म ही शेष रहते हैं । अतः उन्हें आसानी से खपाकर मोक्ष प्राप्त किया जाता है । अतः ८ वें गुणस्थान से लगाकर १४ वें गुणस्थान तक यह ८ वीं परा दृष्टि ही कार्य करती है । निम्न कोष्ठक से थोडा और ख्याल आएगा।
परा दृष्टि का कोष्ठक - दर्शन | योगांग दोषत्याग | गुणप्राप्ति । गुणस्थान चन्द्र की प्रभा समाधि | असंग त्याग | प्रवृत्ति । | ८, ९, १०, १२, के समान
आप स्वभाव १३,१४. संपूर्ण केवल
| से प्रवृत्तिपूरण धर्मसंन्यासयोग ज्ञान - दर्शन
क्षपक श्रेणि
केवलज्ञान - निर्वाण - इस प्रकार योगदृष्टि समुच्चय ग्रन्थ में पू. हरिभद्रसूरि म. ने योग की आठ दृष्टियों का वर्णन किया है। प्रस्तुत अनुसंधान में तो संक्षेप से थोडा अंश मात्र लिया है । विशेष रुचिवालों को मूलग्रन्थ में से विशेष बोध प्राप्त करना चाहिए। ये दृष्टियाँ दर्शन-ज्ञान-बोधप्रकाश की कितनी कम-ज्यादा मात्रा किस कक्षा के जीव में कहाँ किस कक्षा में रहती है यह दिखाने के लिए है । अतः दृष्टान्त के लिए.. उपमा के आठ दृष्टान्त देकर बोधप्रकाश के माप की तुलना भी की गई है। इन ८ दृष्टियों में दो विभाग करके प्रथम की ४ मित्रादि मिथ्यात्व की दृष्टियाँ बताई हैं। उनमें भी पहली मित्रा दृष्टि से
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आध्यात्मिक विकास यात्रा