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बढ़ते हुए क्रम में अन्त में तो सूर्य का क्रम आना चाहिये ? तो ही प्रकाश की क्रमशः बढती अवस्था में सूर्य का प्रकाश ही सही बैठेगा? आपकी बात सही है । एक मात्र प्रकाश के बढते हुए क्रम की दृष्टि से विचार करने के लिये उचित लगता है। परन्तु यहाँ पर आध्यात्मिक विकास की कक्षा है। इसमें मात्र प्रकाश की मात्रा ही न देखते हए अन्य गुणवत्ता पर भी काफी विचार किया गया है। आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में उत्तरोत्तर-सौम्यता-शान्ति-शीतलता-स्थिरतादि के गुण भी आने बहुत जरूरी है। अतः सर्य के प्रकाश में जो उष्णता, उग्रता, तेजस्विता की तीव्रता आदि आते हैं, ये प्रकाश की उत्तरोत्तर वृद्धि में उचित हैं, परन्तु सौम्यतादि अन्य गुणों की दृष्टि से विचार करने पर कुछ गुण सूर्य की अपेक्षा चन्द्र में ज्यादा मात्रा में पाए जाते हैं । सूर्य का प्रकाश तेज-उग्र है। चन्द्र का प्रकाश शीतल-सौम्य है । प्रिय है। चन्द्र की चाँदनी तेज उग्र या असह्य नहीं होती है । चन्द्र के सामने देख सकते हैं । परन्तु वैसा सूर्य के सामने देखना असंभव है। सूर्य के सामने देखना बहुत असंभव सा है । एक क्षण में आँख बन्द हो जाती है । प्रकाश की उग्रता असह्य लगती है । जबकि चन्द्र के प्रकाश के सामने घण्टों तक देख सकते हैं। अतः स्थिरतादि का विचार किया गया है । इसी कारण से सातवी प्रभादृष्टि को सूर्य प्रकाश की उपमा दी गई है और ... ८ वीं परा दृष्टि को चन्द्रप्रकाश की उपमा दी गई है। यह तुलना समुचित लगती है। चन्द्र की चाँदनी जिस तरह औषधियों में परिणमती है । गुणवृद्धिकारक है ऐसा आयुर्वेदिक सिद्धान्त माना गया है । इसी तरह यहाँ पर भी चन्द्र की ज्योत्स्ना समान बोधप्रकाश आत्मा में परिणमन होता है। कषायों का शमन हो और आत्मा के समतादि गुणों का विकास हो यही विशेष उपयोगी सिद्ध होता है।
८ वी परा दृष्टि में बोधप्रकाश ऐसा अत्यन्त सौम्य-शांत-शीतल होने के कारण बोध सदा ध्यानरूप ही होता है। जब एक पदार्थ पर या तत्त्व पर.. ज्ञान की स्थिरता आती है तब ध्यानदशा आती है । अतः इस दृष्टि का प्रकाश ध्यान का कारण बनता है । यहाँ पर आत्मा की अत्यन्त सौम्य निर्विकल्प दशा होने से बोधप्रकाश स्थिर होकर ध्यानरूप बनता है । अतः हमेशा सम्यग् ध्यानरूपता कही है । अन्य-अन्य विकल्प उठने की स्थिति शान्त हो जाती है । अतः यहाँ मन शान्त विकल्परहीत स्थिर हो जाता है । इस ८ वीं दृष्टि में अनुपम अद्भूत सुखानुभूति होती है । आनन्द आता है । जहाँ भी विकल्प है वहाँ चिन्ता है। विव्हलता है । और चिन्ता–विव्हलता ये दुःख के कारणरूप है। सर्वथा सुखी को किसी भी प्रकार की विव्हलता–चिन्तादि का दुःख नहीं होता है क्योंकि वह विकल्परहित स्थिर अवस्था में है।
सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द