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________________ एकाग्रता - तन्मयता आकर ध्यानरूप बन जाती है। आखिर ध्यान क्या है ? एक विषय पर एकाग्रचिन्तन ध्यान है । यहाँ उपशमपूर्ण सुख होता है । अन्य शास्त्र यहाँ अकिंचित्कर-निरूपयोगि बनता है। वैरादिभावों का नाश होता है । इस दृष्टि में उच्च कोटि की उपकारकारिता आती है। तथा सम्यग् क्रिया.. यहाँ अवन्ध्य अर्थात् निष्फल न जाए ऐसी होती है । सच देखा जाये तो यह ध्यान की दृष्टि है । यहाँ सदैव साधक ध्यान 1 में रहता है । क्षीणप्रायः मैलवाले सुवर्ण की तरह साधक सदा ही कल्याणभागी होता है । यहाँ असंगानुष्ठानरूप सत् प्रवृत्तिपद होता है । जो महाप्रयाणरूप होकर मोक्षपद देनेवाला है । इस असंग अनुष्ठान को प्रशान्तवाहिता, विसभागपरिक्षय शिववर्त्म, ध्रुवमार्ग, आदि • संज्ञाओं से योगीजन संबोधित करते हैं । सांख्य-योगदर्शन इसे ही प्रशान्तवाहिता कहते हैं । बौद्धदर्शनी इसे विभाग परिक्षय कहते हैं । शैवमतावलम्बी शिववर्त्म कहते हैं । महाव्रतिक ध्रुवमार्ग कहते हैं । दर्शन योगांग सूर्यप्रकाश ध्यान सदाय के जैसा अनुपम सुख निर्मल बोध शमसार प्रभादृष्टि का कोष्ठक दोषत्याग गुणप्राप्ति राग-द्वेष तत्त्व त्याग प्रतिपत्ति ५५२ अन्य विशिष्टता सत्प्रवृत्ति पदावदपना सत्प्रवृत्तिपद = असंगानुष्ठान गुणस्थान ७ और ८ ८. परादृष्टि परायां पुनर्दृष्टौ चन्द्रचन्द्रिकाभासमानो बोध, सद्ध्यानरूप एव सर्वदा विकल्परहितं मतः, तदभावेनोत्तमं सुखं, आरूढारोहणवन्नानुष्ठानं प्रतिक्रमणादि परोपकारित्वं यथाभव्यत्वं तथा पूर्ववदवन्ध्या क्रियेति । रा नामकी अन्तिम आठवीं दृष्टि में चन्द्र की चन्द्रिका - ज्योत्स्ना अर्थात् पूर्णिमा की रात में चन्द्र के प्रकाश के समान बोध प्रकाश इस दृष्टिवाले जीव को होता है । प्रकाश के बोध के उदाहरणों की उपमाओं में यह अन्तिम आठवाँ चन्द्र का दृष्टान्त रखा है। शायद आप को आश्चर्य होगा कि सातवी प्रभा दृष्टि में तो सूर्य की उपमा दी और यहाँ आठवीं परा दृष्टि में क्यों चन्द्र की उपमा दी ? सूर्य से ज्यादा चन्द्र का प्रकाश होता है कि कम ? आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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