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________________ होगा, जैसे जिन्दगीभर के किसी भिखारी को एका एक करोड़ों की संपत्ति मिल जाय तो उसे कितना आनन्द होता है ? या जन्मान्ध व्यक्ति की आँखे किसी दैवी चमत्कार से 'अचानक ही खुल जाय तो कितना अपार आनन्द होता है। ठीक इसी तरह अनन्तकाल से त्वग्रस्त है उसे ग्रन्थिभेद होने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति से अनहद - अपार आनन्द होता है। स्थिरा दृष्टि दो प्रकार की होती है- १. सातिचार और २ निरतिचार | जो रत्नप्रभारूप ज्ञानप्रकाश क्रमरहित अतिचार रहित हो उसे निरतिचार स्थिरा दृष्टि कहते हैं । और जिस ज्ञान के बोध को बार बार अतिचार की धूल लगती रहती है और प्रकाश क्षीण होता जाता है उसे सातिचार स्थिरा दृष्टि कहते हैं । यद्यपि कम - क्षीण प्रकाश भी मूल रूप सेतो स्थिर ही है । स्थिरा दृष्टि में रहे हुए साधक को १. सूक्ष्म बोध की प्राप्ति होती है, २ . . वेद्य-संवेद्य प्राप्त होता है, ३. सब प्रकार की संसार की चेष्टाएँ - क्रियाएँ - छोटे बालक धूल के घर की क्रीडा समान भासते हैं, ४ . मैं एक आत्मस्वरूप सत्य हूँ, शेष जगत् पौद्गलिक स्वरूप असत् भासमान होता है। ऐसी भावनाएँ बढ़ती हैं। पुण्य-जनित भोग भी यहाँ अनिष्ट- अप्रिय लगता है । यद्यपि चन्दन का वृक्ष स्वभावतः ही शीतल है फिर भी काष्ठ तो है ही । यदि चन्दन के काष्ठ वृक्ष में आग लगे तो जंगल को भी जला सकती है, क्योंकि वैसा उसका स्वभाव है। वैसे ही पुण्यजन्य भोग सुख भी अंतर्दाह उत्पन्न करता है सम्यक्त्वी को । इस दृष्टिवाले जीव को अलोलुपतादि गुणों की प्राप्ति भी होती है । स्थिरा दृष्टि विषयक कोष्ठक दर्शन रत्नप्रभासम प्रकाश नित्य योगांग प्रत्याहार दोषत्याग भ्रान्ति त्याग ५५० गुणप्राप्ति सूक्ष्म बोध अलोलुपतादि गुणस्थान ४, ५, ६ ६. कान्तादृष्टि ." कान्तायां तु ताराभासमान एषः, अतः स्थित एव प्रकृत्या निरतिचारमंत्रानुष्ठानं शुद्धोपयोगानुसारि विशिष्टाऽप्रमादसचिवं विनियोगप्रधानं गम्भीरोदाराशयमिति । " कान्ता नामक छट्ठी दृष्टि का बोधप्रकाश ताराओं के प्रकाश समान बताया गया है । स्थिरा में जो रत्नप्रभा के जैसा प्रकाश था वह बढ़कर कान्ता में ताराओं के प्रकाश के जितना हो गया । इसका प्रभाव ऐसा हुआ की स्थिरा दृष्टि की साधना में जो अनुष्ठान सातिचार आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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