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के साथ की गई है। और चौथी दिप्रा दृष्टि की कक्षा में रहे हए जीवविशेष को ज्ञान के प्रकाश का प्रमाण दीपक की ज्योति के प्रकाश के समकक्ष है । यहाँ तक..अर्थात् चौथी दिप्रा दृष्टि तक.. मिथ्यात्व की ही अवस्था रहती है । इसके बाद की स्थिरादि चार दृष्टियाँ सम्यक्त्वी की है। अतः स्थिरा दृष्टि से सम्यक्त्व प्रारंभ होता है । क्रमप्राप्त अवसरानुसार अब यहाँ से स्थिरा दृष्टि का विवेचन करते हैं।
स्थिरादृष्टि
स्थिरा तु भिन्नग्रन्थेरेव भवति। तद्बोधो रत्नप्रभासमानस्तद्भावोऽप्रतिपाती प्रवर्धमानो निरपायो नापरपरितापकृत् परितोषहेतुः प्रायेण प्रणिधानादियोनिरिति ।
योगदृष्टि समुच्चय की इस टीका में कहते हैं कि, . . जिस जीव ने यथाप्रवृतिकरण-अपूर्वकरणादि तीनों करण करके ग्रन्थिभेद कर लिया है और सम्यग् दर्शन प्राप्त कर लिया है ऐसे सम्यग् दृष्टि जीव को चौथी स्थिरादृष्टि होती है । इसका नाम ही ऐसा रखा है.. जो अर्थ सूचक सार्थक है । मिथ्यात्व के बंधन में से बाहर निकलकर जिस आत्मा ने सम्यग् दर्शन प्राप्त करके दृष्टि–बुद्धि-ज्ञानादि स्थिर कर लिया है वह स्थिरादृष्टिवाला कहा जाता है । अभी तक के जो प्रकाश तिनके गोबर-काष्ठ तथा दीपक के थे वे सभी अस्थिर साधन थे। अतः उनका बोधरूप प्रकाश भी स्थिर नहीं था। परन्तु यहाँ पाँचवी स्थिरा दृष्टि का प्रकाश भी स्थिर हो गया है । वह रल के प्रकाश की तुलना में पहुँचा है । रत्न स्वयं स्थिर स्थायी स्वरूप में है । अतः उसका प्रकाश भी स्थिर स्थायी स्वरूप में ही रहेगा। दीपकादि के प्रकाश की तरह इस में कोई कम-ज्यादा होने की संभावना ही नहीं है । दीपक में तो तेल समाप्त होने पर प्रकाश बुझ जाता है । परन्तु रल की प्रभा सदा एक जैसी ही रहेगी। वैसा सम्यग् दृष्टि का बोध है । इस स्थिरा दृष्टि का बोधभाव अप्रतिपाती-अपतनशील, वृद्धिगत, किसी भी प्रकार के अपाय-दुःख विघ्न रहित, दूसरों को संताप नहीं करनेवाला, निर्दोष आनन्दकारी और प्रायः प्रणिधानादि प्रवृत्ति का बीजभूत कारण रूप है । आत्मा में जैसे जैसे योगदृष्टियों का विकास होता जाता है वैसे वैसे उसमें बोध प्रकाश (ज्ञान का प्रकाश) भी बढ़ता ही जाता है। अंधेरे में भी उजाला-प्रकाश करे ऐसे प्रकाश के जितना बोध-प्रकाश पाँचवी स्थिरा दृष्टि में होता है। इसका बोध “परितोष-हेतु" अर्थात् निर्मल आनन्द का कारण है । अब सम्यक्त्व पा लिया है अतः विषयों का तीव्र राग-द्वेष शान्त हो जाता है । मिथ्यात्व के गाढ अंधकार में से जीव अब सम्यक्त्व के प्रकाश में आता है तो क्या उसे आनन्द नहीं होगा? काफी ज्यादा
सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द