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मित्रा-तारा-बला-दीप्रा-स्थिरा-कान्ता-प्रभा-परा । नामानि योग दृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ॥१३॥ योग.॥
८ दृष्टीयां- १) मित्रा २) तारा ३) बला ४) दीप्रा ५) स्थिरा ६) कान्ता ७) प्रभा ८) परा । ये ८ दृष्टीयां क्रमशः दर्शायी है।
___ इन ८ योग दृष्टीयों का सबका अपना-अपना प्रकाश किसका कितना है यह ८ प्रकार के न्यूनाधिक दृष्टान्तों से दर्शाया है।
तुणगोमय काष्ठाग्निकण दीपप्रभोपमा । : रत्न तारार्कचन्द्राभाः सद्वृष्टिरष्टधा ॥१५॥ योग.॥
१) मित्रा में- तृण-तिनके जैसा २) तारा में- छाण की अग्नि जैसा ३) बला मेंकाष्ठाग्नि ४) दीप्रा में- दीपक की प्रभा जैसा ५) स्थिरा में रत्न के जैसा स्थिर प्रकाश ६) कान्ता में- ताराओं के प्रकाश जैसा ७) प्रभा में- सूर्य प्रकाश जैसा ८) परा में- चन्द्र की चांदनी जैसे प्रकाश होता है। जैसा इन ८ दृष्टांतो का प्रकाश होता है ठीक वैसा इन ८ दृष्टीयों में बोध का प्रमाण रहता है। १) मित्रा दृष्टि- इसमें तृण-अग्निकण (तिनके) जैसा अत्यन्त मन्द बोध होता है। अल्प वीर्य वान-अल्पजीवी बोध होता है। जैसे तिनके का प्रकाश अल्पकालिक होता है वैसे ही मित्रा दृष्टि में बहुत कम काल बोध टिकता है। योगांग यम नामक होता है। अहिंसादि ५ यम पालने की इच्छा अल्प होती है। खेद दोष का त्याग होता है। अद्वेष नामक गुण भी होता है। . २) तारा दृष्टि- इस दूसरी दृष्टि का बोध पहली की अपेक्षा हल्का सा ज्यादा होता है। तृण की अपेक्षा छाने की अग्नि का प्रकाश थोडा अधिक है। ऐसी दूसरी अवस्था की दृष्टि का नाम तारा है। इसमें योगांग दूसरा नियम आता है। अब इसमें यम रोज के नियम में आचरण में आते हैं। शौच गुण प्रकट होता है। भाव मैल दूर करने का लक्ष्य रखता है। तत्त्व जिज्ञासा भी प्रमाण में धिरे-धिरे बढ़ती है। धर्म के प्रति अनुद्वेग दिखता है । मोक्ष के प्रति अद्वेष भाव होता है। ३) बला दृष्टि- प्रथम दो की अपेक्षा इस दृष्टि में प्रकाश अर्थात् बोध थोडा और बढता है। काष्ठाग्नि जैसा होता है। लकडा जलने के बाद कितना बढता है उतनी भोगो के प्रति हेय बुद्धि तथा योग मार्ग में उपादेय बुद्धि बढ़ती है। धर्म मार्ग में सविशेष रुचि बढती है। ऐसे जीवों को सद्गुरु के प्रति भक्तिभाव बढ़ता है। तीसरा योगांग आसन इसमें आन्तरिक स्थैर्य निर्माण करता है। श्रेष्ठ तत्त्व शुश्रुषा- तत्त्व जिज्ञासा बढती है। क्षेप दोष का त्याग होता है। भोगों का त्याग करने की बुद्धि करने की बुद्धि बढती है। ४) दीप्रा दृष्टि- चरमावर्त के अन्त में यह चोथी दीप्रा दृष्टि खुलती है। पहली ३ की अपेक्षा इस चोथी दीप्रा दृष्टि में दीपक की तरह प्रकाश की ज्योत की तरह प्रकाश ज्यादा बढ़ता है। चौथा योगांग प्राणायाम इसमें परभावों का विरेचन होता है। इस दृष्टि में उत्थान नामक दोष टलता है तथा तत्त्व श्रवण नामक गुण बढता है।