SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१) True + False = False सत्य और असत्य जब दोनों साथ मिल जाते हैं तो परिणाम स्वरुप वह भी असत्य ही होता है। जैसे भगवान का सही सर्वज्ञ - वीतरागी स्वरुप सत्य स्वरुप में मानने पर भी यदि उसे सर्जक-कर्मफलदातादि स्वरुप में मान लेने पर भी वह असत्य हो जाता है। २) False + True = False प्रथम भंग का उल्टा दूसरा है। इसमें असत्य को सत्य के साथ जोडकर बात की जाती है। जैसे सृष्टि सर्जक सुखदाता, दुःखहर्ता भगवान ही वीतरागी सर्वज्ञ है । यह असत्य है । |३) False + False = True असत्य को ही असत्य कहना यह बिल्कुल सत्य सिद्ध होता है। अर्थात् रागी -द्वेषी असर्वज्ञ को भगवान नहीं मानना यह बिल्कुल सत्य बात है। | ४) True + True = True सत्य को सत्य मानना आखिर अन्त में सत्य ही सिद्ध होता है। | जैसे वीतरागी सर्वज्ञ परमात्मा सृष्टि का सर्जन भी नहीं करते हैं और कर्मफल भी नहीं देते हैं वे ही सच्चे भगवान कहलाने योग्य है । इस तरह सत्य-असत्य की चतुर्भंगी से अंतिम निर्णय करके सही सत्य को स्वीकारना हितकारी है। योग की ८ दृष्टियों का स्वरुप :- योग मार्ग पर आगे बढनेवालों को सर्व प्रथम अपनी दृष्टि को सत्य के आग्रही बनना जरुरी है। जिसकी जितनी दृष्टि विकसित होती है उतना उसका ज्ञान-बोध बढता है। योग -. शिरोमणी योगग्रन्थों के प्रणेता सम्यत्व सम्य त्व चंद्रप्रभा सूर्यप्रभा प्रतिपत्ति रुग (रोग) El23 विशेषता बोध-उपमा गुणप्राप्ति दोषत्याग योगांग योगदृष्टि प्रभा यरा कांता 10/22 जीव هبل Be PMH यम मिथ्यात्व तृणाग्नि अद्वेष/ जिज्ञासा गोमयाग्नि मिथ्यात्व तारा नियम उद्वेग Inkk पू. हरीभद्रसूरि महाराज ने स्वयं संशोधन करकें आत्मा में बढे प्रज्ञान (बोध) की प्रकाश के साथ तुलना करके उसमें से • बनने एवं बढनेवाली ऐसी आठ दृष्टीयों का अनोखा अद्भूत विवेचन योगदृष्टि समुच्चयादि ग्रंथों में किया है। उन्होंने ज्ञान (बोध) की तुलना प्रकाश के साथ करके कम-ज्यादा बला / आसन क्षेप शुश्रुषा काष्ठाग्नि मिथ्यात्व प्रकाश कैसा होता है? एक से दूसरे में कितना कम-ज्यादा होता है? इस प्रकाश की न्यूनाधिकता के आधार पर सर्व सामान्य लोगों को स्वयं के आत्मिक विकास का ख्याल आ सके इसके लिए ८ दृष्टीयों के रुप में इसका विवरण किया है।
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy