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मानना बड़ा आसान लगता है, जबकि भगवान के द्वारा कहे हुए तत्त्वों या आज्ञा रूप धर्म को मानने या स्वीकारने में पढ़ना, समझना, जानना, सोचना, विचारना, चिन्तन करना, मनन करना, परीक्षण करना और फिर दिमाग में बैठाना, एवं इतना ही नहीं पुनः उसका जीवन में आचरण करना तथा उसे सम्यग् श्रद्धा में स्थिर करना बड़ा कठिन, लोहे के चने चबाने जैसा लगता है । इसलिये सरल होने से भगवान को मानने के लिए वह तैयार है लेकिन भगवान के कहे हुए तत्त्व व आज्ञा रूप धर्म को स्वीकार करने को वह जल्दी तैयार नहीं होता है । जैसे पीला देखकर सोना खरीदना आसान होता है, परन्तु कस लगाकर कसौटी पर कसना, छेद, भेद, ताप आदि से परीक्षा करके ठगे न जाय, इस वृत्ति से खरीदना कठिन होता है।
संख्या की दृष्टि से विचार किया जाय तो तीसरे नम्बर का पुत्र या भक्त जो सर्वथा नास्तिक एवं अयोग्य है अर्थात् जो भगवान और भगवान की आज्ञा रूप धर्म को मानने
और स्वीकारने को सर्वथा तैयार नहीं है, ऐसे लोगों की संख्या संसार में सबसे ज्यादा है। दूसरे नम्बर पर भगवान को मानना लेकिन भगवान के कहे हुए तत्त्व या आज्ञारूप धर्म को न मानने वालोंकी संख्या आती है। तीसरे नम्बर पर भगवान के कहे हुए तत्त्व या आज्ञारूप धर्म को मानने वाले, परन्तु भगवानको न मानने वाले लोगों की संख्या भी इस संसार में है । अब रही बात चौथे नम्बर की । सच्चा धर्मी एवं आस्तिक-श्रद्धालु वही है जो भगवान को और भगवान की आज्ञा रूप धर्म को समान रूप से मानता, स्वीकारता, जानता, आचरण करता है । यद्यपि इस चौथे प्रकार के भक्त या पुत्र के जैसे लोगों की संख्या संसार में अल्प ही क्यों न हो, फिर भी है तो सही।
जैसे कि जिसके पास नाव हो और वह उसे चलाना भी जानता है, तो वह पार पहुँच जाता है। वैसे ही चौथे नम्बर का उपासक (भक्त) संसार समुद्र तैर जाता है। इस तरह सही जानना और सही मानना यही सम्यग्दी की सच्ची दृष्टि कहलाती है । अतः सम्यग् दृष्टि जीव सत्य को सत्य ही कहेगा और असत्य को असत्य ही कहेगा। सत्य-असत्य की चतुर्भगी
(१) Tue + False = False (२) False + True = False (3) False + False = True (४) True + True = True
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आध्यात्मिक विकास यात्रा