________________
तीन शुद्धि- मन, वचन, काया। तीन लिंग-सुश्रुषा, राग, वैयावच्च। पाँच लक्षण-शम, संवेग, निर्वेद, आस्तिक्य, अनुकंपा। पाँच दूषण-शंका, आकांक्षा, वितिगिच्छा, प्रशंसो और संस्तव । पाँच भूषण- स्थैर्य, प्रभावना, भक्ति, कुशलता और तीर्थ सेवा।
आठ प्रभावक-प्रवचनी, धर्म कथनी, वादी, निमित्तभावी, तपस्वी, विद्यासम्पन्न, सिद्ध और कवि।
छ: आगार- रायाभियोगेणं, गयाभियोगेणं, बलाभियोगेणं, देवाभियोगेणं, गुरुनिग्रह, वृत्तिकान्तार।
चार सद्हणा-तत्त्वज्ञान का परिचय, तत्त्वज्ञानी की सेवा, व्यापन्नदर्शनी वर्जन, कुलिंगी संग वर्जन।
छः जयणा-कुदेव या कुचैत्य के साथ ६ प्रकार का व्यवहार न करमा, वंदन, नमन, दान, प्रदान, आलाप, संलाप। ___ छः स्थान- अस्ति, नित्य, कर्ता, भोक्ता, मुक्ति, उपाय ।
दश विनय-निर्मलता के लिए इन दस का विनय करना- अरिहंत, सिद्ध, चैत्य, श्रुत, धर्म, साधु, आचार्य, उपाध्याय, प्रवचनी, दर्शन।
उपरोक्त सम्यक्त्व के ६७ अधिष्ठान स्थान हैं। इनको पहचानना और इनका आचरण करना लाभदायी है। इससे सम्यक्त्व की प्राप्ति भी होती है, या प्राप्त सम्यक्त्व निर्मल होता है । इन ६७ अधिष्ठान स्थानों को सम्यक्त्व के ६७ भेद या प्रकार के रूप में भी समझे जाते हैं। ऐसा सम्यक्त्व प्राप्त जीव सम्यक्त्वी एवं सम्यग् दृष्टि बन जाता है। इसके कारण प्रत्येक क्षेत्र में वह यथार्थ एवं वास्तविक ज्ञान की बुद्धि से देखता है, जानता है और उसे मानता है।
सम्यग् दर्शन में जानना और मानना"
सम्यग् ज्ञान से जीव जानता है और सम्यग् दर्शन से जीव मानता है । इसलिए यदि सम्यग् ज्ञान है तो उसकी जानकारी भी सम्यग् एवं सच्ची होगी। ठीक इसके विपरीत यदि ज्ञान मिथ्या या विपरीत या भ्रमपूर्ण या संदेहास्पद या संशयात्मक होता है तो उसकी
५४२
आध्यात्मिक विकास यात्रा