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का कुछ भी ज्ञान नहीं था, फिर भी उपशम-संवर-विवेक रूप पदत्रय के श्रवण मात्र से ही जो मोक्ष रुचि जागृत हुई उसे संक्षेपरुचि कहते हैं।
(१०) धर्मरुचि-मात्र "धर्म" शब्द सुनने से ही जिसे धर्म के प्रति आदर, सन्मान, प्रेम या प्रीति उत्पन्न हो और धर्म पर से वाच्य ऐसे यथार्थ धर्म तत्त्व के प्रति जो सही कक्षा या रुचि उत्पन्न हो, उसे धर्म रुचि सम्यक्त्व कहते हैं।
इस प्रकार सम्यक्त्व द्योतक दस प्रकार की भिन्न-भिन्न रुचियां हैं, जो सम्यग् श्रद्धाकारक है। संक्षेप में साधक की सम्यग् श्रद्धा का विश्लेषण करने पर प्रमुख तीन विषयों पर उसकी श्रद्धा का आधार दिखाई देता है, अतः इन तीन विषयों को इस तरह स्पष्ट किया है
अरिहंतो, महदेवो, जावज्जिवं सुसाहुणो गुरुयो।
जिणपन्नतं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहिअं॥ अरिहंत ही मेरे देव-भगवान हैं, सुसाधु मुनिराज ही मेरे गुरु हैं, एवं सर्वज्ञ जिनोपदिष्ट तत्त्व ही मैं यावत्-जीवन (आजीवन) पर्यंत स्वीकार करता हूँ। यहाँ जिनोपदिष्ट तत्त्व से धर्म तत्त्व लिया गया है। इस तरह देव-गुरु-धर्म रूप तत्त्व की यथार्थता को सम्यग् श्रद्धा पूर्वक स्वीकारने वाला साधक यह कहता है कि ऐसा सम्यक्त्व-सम्यग्दर्शन या सम्यग् श्रद्धा मैंने स्वीकार की है । इसे ही भावना रूप बनाकर साधक प्रतिदिन इसका बार बार स्मरण करता है। : समकित के ६७ बोल- .
पूज्य उपाध्याय यशोविजयजी महाराज ने सम्यग्दर्शन प्राप्त किए हुए सम्यग् दृष्टि साधक के स्वरूप का विवेचन करते हुए ६७ बोल मुख्य रूप से बताए हैं। अर्थात् सम्यक्त्वी कैसा होना चाहिये ? उसके लक्षण क्या है ? वैसे ही सम्यक्त्वी की शोभा किस में है? इस तरह सद्दहणा-जयणा-भावना, विनयादि कितने भेद-प्रभेद से युक्त सम्यक्त्वी का स्वरूप कैसा होता है ? यह प्रदर्शित किया है । उपाध्यायजी ने इस विषय में “समकितना ६७ बोल" की सज्झाय नामक स्वतन्त्र पुस्तक रूप में रचना की है । यद्यपि यह स्वतन्त्र ग्रन्थ रूप से अध्ययन करने योग्य है तथापि यहाँ पर स्थान एवं विस्तार भय से संक्षेप में उन ६७ बोलों के नाम मात्र का उल्लेख करते हैं
सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द