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(३) आज्ञारुचि - विवक्षित अर्थ बोध के बिना भी जिनेश्वर भगवान की आज्ञा ही सत्य मानकर कदाग्रह के बिना तत्त्वों में अभिरुचि रखना, आज्ञारुचि कहलाती है । वीतरागी आप्त पुरुष की आज्ञा मात्र से अनुष्ठान करने की रुचि या आचार्य, उपाध्याय, साधु भगवंत, गुरु की आज्ञा से अनुष्ठान आचरने में जो रुचि उत्पन्न होती है उसे आज्ञारुचि सम्यक्त्व कहते हैं । जैसी माषतुष मुनि में थी ।
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(४) सूत्ररुचि - आचारांग सूत्र, दशवैकालिक सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र आदि अंग- उपांग-सूत्र, आदि आगम ग्रन्थों का पुनः पुनः अध्ययन, अध्यापन पुर्नरावर्तन करने से उत्पन्न ज्ञान के द्वारा जीवादि तत्त्वों में यथार्थपने की विशेष श्रद्धा जो उत्पन्न हो, उसे सूत्र रुचि सम्यक्त्व कहते हैं। जैसा कि गोविन्दाचार्य को थी ।
(५) बीजरुचि - जीवादि किसी एक पदार्थ की श्रद्धा से उसके अनुसंधान रूप अनेक पदों में तथा उसके अर्थ में उत्तरोत्तरं विस्तार होता जाय, उसे बीज रुचि सम्यक्त्व कहते हैं । जैसे पानी में गिरा हुआ तेल बिन्दु विस्तरता हुआ, चारों तरफ फैल जाता है या एक बीज बोने से जैसे अनेक बीजों का निर्माण होता है वैसे ही अनेक तत्त्वों के बीज रूप या कारणभूत किसी एक तत्त्व की श्रद्धा होने पर वह विस्तरित होती हुई अनेक तत्त्वों की श्रद्धा निर्माण करें, उसे बीजरुचि सम्यक्त्व कहते हैं ।
(६) अधिगमरुचि - अधिगम अर्थात् ज्ञान । सर्व आगमों के अभ्यास से अर्थ ज्ञान जो प्राप्त किया हो और उस ज्ञान से सर्व आगम शास्त्रों के अर्थ पर सर्वथा सही है ऐसी श्रद्धा उत्पन्न हो उसे अधिगमरुचि सम्यक्त्व कहते हैं ।
(७) विस्ताररुचि - प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान, शब्द, प्रत्यभिज्ञा एवं आगम आदि सर्व प्रमाण, नय और निक्षेप आदि पूर्वक जो सर्व द्रव्यों का और सर्व गुण पदार्थों का ज्ञान होता है और उससे उत्पन्न हुई अत्यन्त विशुद्ध श्रद्धा को विस्ताररुचि सम्यक्त्व कहते हैं ।
(८) क्रियारुचि - ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार आदि पाँच आचार का पालन करने की रुचि एवं विनय, वैयावच्च आदि अनुष्ठान रूप क्रिया करने की रुचि को क्रियारुचि सम्यक्त्व कहते हैं ।
(९) संक्षेपरुचि - जिसे पर- दर्शन का ज्ञान नहीं है और जिन वचन रूप स्व-दर्शन से भी अच्छी तरह परिचय नहीं है, अर्थात् जिसने किसी तत्त्व का सही ज्ञान प्राप्त नहीं किया है, ऐसे जीव को मात्र मोक्ष प्राप्ति की रुचि हो उसे संक्षेप रुचि सम्यक्त्व कहते हैं । जैसा कि “चिलाती पुत्र" के जीवन में हुआ। जिसे सम्यग् धर्म का एवं तत्त्वादि
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आध्यात्मिक विकास यात्रा
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