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जीवसमासवृत्ति में मलधारी हेमचन्द्रसूरि म. ने लिखा है कि"वेद्यते- अनुभूयते शुद्ध सम्यक्त्व पुंज पुद्गल अस्मिन्नीति, वेदकम्।"
अर्थात् शुद्ध सम्यक्त्व के पुद्गल पुंज जिसमें वेदन-अनुभव होता है, उसे वेदक सम्यक्त्व कहते हैं।
उपरोक्त पाँच प्रकार के सम्यक्त्वों का संक्षेप में विवेचन किया गया है । विशेष रुचि वाले महानुभावों को अन्य शास्त्र आदि ग्रन्थों से जान लेना चाहिये। दशविध सम्यक्त्व
____ “रुचि: जिनोक्ततत्त्वेषु, सम्यग् श्रद्धानमुच्यते।" - योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य म. कहते हैं कि, जिनेश्वर भगवान द्वारा कहे हुए तत्त्वों में रुचि निर्माण होना इसे सम्यक्त्व या सम्यग् (सच्ची) श्रद्धा कहते हैं। “तत्त्वरुचि” सम्यग्दर्शन का कारणभूत प्रबल निमित्त बताया गया है । सिद्धचक्र महापूजन के अनुष्ठान में-“तत्त्वरुचिरूपाय श्री सम्यग्दर्शनाय स्वाहा।” “तत्त्वरुचि” रूप सम्यग् दर्शन को मंगल रूप मानकर पूजन करते हुए नमस्कार किया गया है। अतः सारांश यह है कि सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए “तत्त्वरुचि" जागृत करना परम आवश्यक है। शास्त्रकार महापुरुषों ने सम्यक्त्व कारक ऐसी १० प्रकार की भिन्न-भिन्न रुचियाँ दशविध सम्यक्त्व के अन्तर्गत बताई है । वे इस प्रकार हैं
निसग्गुवए स रूई आणरूइ सुत्त-बीअरूड्मेव।
अधिगम-वित्थाररूई, किरिआ संखेवधम्मई ।। . (१) निसर्गरुचि- निसर्ग अर्थात् नैसर्गिक याने स्वाभाविक भाव से " जिनेश्वर-सर्वज्ञ भगवान द्वारा प्ररूपित जीवादि तत्त्वों के प्रति स्वाभाविक अभिलाषा या
रुचि होना । बिना किसी के उपदेश से जाति-स्मरणज्ञान से या अपनी प्रतिभाशालो मति से जीवादि तत्त्वों के प्रति रुचि जागृत होना, या दर्शन मोहनीय कर्म के क्षयोपशम होने से मात्र व्यवहार रूप से नहीं परंतु यथार्थ रूप से सत् वस्तु को ही वस्तु रूप मानने का जो शुभ भाव व इससे जीवादि तत्त्व के प्रति यथार्थ श्रद्धा रूप रुचि को निसर्गरुचि सम्यक्त्व कहते हैं।
(२) उपदेशरुचि-गुरु, सर्वज्ञ केवली के उपदेश द्वारा जीवादि तत्त्वों में सत् भूतार्थ रूप, यथार्थपने की रुचि(बुद्धि) को उपदेश रुचि सम्यक्त्व कहते हैं । अर्थात् उपदेश श्रवण से होनेवाले बोध की रुचि को उपदेशरुचि सम्यक्त्व कहते हैं।
सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द
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