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________________ .. है ऐसे यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण तथा अन्तःकरण आदि करणों के द्वारा अनादि मिथ्या दृष्टि जीव को अपूर्वकरण से निबिड़ राग-द्वेष की ग्रन्थि का भेदन करने पर अनिवृत्तिकरण के अन्त में जो सम्यक्त्व प्राप्त होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । इसका काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण होता है । चारों ही गति में पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को तीनों करण एवं ग्रन्थि भेद आदि से यह सम्यक्त्व प्रकट होता है तथा उपशम श्रेणि में चढ़ते हुए जीवों को होता है । I ४. सास्वादन सम्यक्त्व - स + आस्वादन = सास्वादन । आस्वादनेन सह वर्तते इति सास्वादनम् । अर्थात् कुछ स्वाद - आस्वादन के साथ रहे उसे सास्वादन कहते हैं । औपशमिक सम्यक्त्व के चौथे गुणस्थानक से पतित होते हुए, सास्वादन नामक दूसरे गुणस्थानक पर जो सम्यक्त्व का आस्वादन मात्र रहता है, उसे सास्वादन सम्यक्त्व कहते हैं। औपशमिक सम्यक्त्ववंत कोई सम्यक्त्वी जीव अन्तःकरण के अन्त में जघन्य से एक: समय और उत्कृष्ट से छः आवलिका का समय शेष रहने पर, अनन्तानुबंधी कषाय का उदय होने पर, सम्यक्त्व से पतित होता हुआ अर्थात् सम्यक्त्व का वमन करने से जब गिरता है, तब कुछ सम्यक्त्व का स्वाद मात्र अंश शेष रहता है। उसे सास्वादन सम्यक्त्व कहते हैं । जैसे कोई पाक - दूध, रबड़ी का भोजन करता है और तुरन्त भोजन का वमन होने पर जो आंशिक स्वाद रहता है, ठीक वैसे ही उपशम सम्यक्त्व के वमन होने पर, जो कुछ स्वाद रूप अंश रहता है— उसे सास्वादन सम्यक्त्व कहते हैं। उपशम सम्यक्त्व से गिरते समय मिथ्यात्व और सम्यक्त्व के बीच का काल ६ आवलिक प्रमाण सास्वादन सम्यक्त्व होता है । ५. वेदक सम्यक्त्व - क्षपक श्रेणि को प्राप्त करने वाले क्षायिक सम्यक्त्वी जीव को अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चारों कषाय एवं मिथ्यात्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय के पुंज इन ६ के सम्पूर्ण क्षय होने के बाद सम्यक्त्व मोहनीय के शुद्ध पुंज का क्षय करते समय जब सम्यक्त्व मोहनीय के अन्तिम पुद्गल का क्षय करने का अवसर आता है, तब अन्तिम ग्रास का जो वेदन हो रहा हो, उस समय के सम्यक्त्व को वेदक सम्यक्त्व कहते हैं । इसके बाद अर्थात् अन्तिम ग्रास के क्षय होने पर दर्शन सप्तक का सम्पूर्ण अन्त-क्षय होने से अन्तर्मुहूर्त समय में जीव क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है । ५३८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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