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३-४-५ प्रकार के सम्यक्त्व में मात्र थोड़ा सा ही अन्तर है। तीसरे प्रकार के सम्यक्त्व में मात्र चौथा सास्वादन मिलाने से चौथा प्रकार होता है, और चौथे प्रकार के सम्यक्त्व में पाँचवा वेदक सम्यक्त्व मिलाने से पाँचवा प्रकार बनता है । इस प्रकार १. क्षायिक, २. क्षायोपशमिक, ३. औपशमिक, ४. सास्वादन ५. वेदक इस तरह पाँच प्रकार के सम्यक्त्व बताए गए हैं। १. क्षायिक सम्यक्त्व
खीणे दंसणमोहे, तिविहंमि वि भवनिआण भूअंमि ।
निपच्चवायमउलं सम्मत्तं खाइयं होई॥ मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय तीनों प्रकार के दर्शन मोहनीय कर्म का सम्पूर्ण रूप से क्षय और साथ ही अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ चारों कषाय; इस तरह कुल सातों कर्म प्रकृतियों के दर्शन सप्तक का सम्पूर्ण रूप से सर्वथा क्षय हो जाने पर प्राप्त होता हुआ, स्वाभाविक तत्त्वरुचि रूप सम्यक्त्व आत्म परिणाम विशेष को क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। चूँकि यह सर्वथा क्षय से उत्पन्न होता है, इसलिए इसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। यह क्षायिक सम्यक्त्व अप्रतिपाती है। अर्थात् उत्पन्न होने के बाद कभी भी नष्ट न होता हुआ अनन्तकाल तक रहता है । अतः इसे आदि अनन्त भी कहते हैं । क्षायिक भाव से उत्पन्न होने वाला यह सम्यक्त्व क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता
__२. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व
मिच्छत्त जमुइन्नं तं खीणं अणुइययं च उवसंतं ।
मीसीभाव परिणयं, वेइज्जतं खओवसमं ।। क्षय + उपशम = क्षयोपशम । क्षयोपशमत्व भाव क्षायोपशमिक अर्थात् उदय में आये हुए मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के दलिकों का सर्वथा मूल सत्ता में से क्षय करना और उदय में नहीं आये हुए मिथ्यात्व मोहनीय कर्म दलिकों का दबा देने रूप उपशमन कर रखना। ऐसे क्षय और उपशम भाव से, क्षय के साथ उपशम रूप क्षायोपशम भाव से जो सम्यक्त्व प्राप्त होता है, उसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं।
३. औपशमिक सम्यक्त्व- मिथ्यात्व मोहनीय और अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन कर्मप्रकृति की अनुदय अवस्था अर्थात् उपशम होने से जो सम्यक्त्व प्राप्त होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। पूर्व में जिनका काफी विवेचन किया गया
सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द
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