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औपशमिक सम्यक्त्व ये दोनों आत्मा के घर के होने से अपौद्गलिक विभाग में गिने जाते हैं। अतः इन्हें “अपौद्गलिक सम्यक्त्व" कहते हैं।
त्रिधा सम्यक्त्व
१. कारक सम्यक्त्व-सर्वज्ञ भगवान ने जैसा “अनुष्ठान-मार्ग” या चारित्र क्रिया रूप जो मार्ग प्रतिपादित किया है उस मार्ग पर चलनेवाले शुद्ध क्रियाशील जीव के श्रद्धाभाव को कारक सम्यक्त्व कहते हैं, अर्थात् सूत्रानुसारिणी शुद्ध क्रिया कारक सम्यक्त्व के रूप में है। ऐसी क्रिया से स्व-आत्मा को और देखने वाली पर-आत्मा को भी सम्यक्त्व प्राप्त होता है। अतः यथार्थ तत्त्व श्रद्धान पूर्वक आगमोक्त शैली अनुसार तप-जप-व्रतादि क्रिया करनेवाले विशुद्ध चारित्रवान् इस कारक सम्यक्त्व के अधिकारी
२. रोचक सम्यक्त्व-सर्वज्ञ-वीतरागी भगवान के वचन में पूर्ण श्रद्धा रखें, उसमें पूर्ण रुचि भी हो एवं जिनोक्त धर्म की तप-जप-विधि-क्रिया आदि करने की तीव्र रुचि हो, परन्तु बहल कर्मी जीव होने के कारण वैसी क्रियाएँ कर न सके, किन्त रुचि रूप जो श्रद्धा रहती है, उस सम्यग् क्रिया के रुचिरूप भाव को रोचक सम्यक्त्व कहते हैं । लेकिन इसमें प्रवृत्ति वैसी नहीं कर पाता है। ऐसा रोचक सम्यक्त्व अविरत सम्यग् दृष्टि नामक चौथे गुणस्थानक वाले को होता है। जैसे- श्रेणिक महाराजा आदि को था।
३. दीपक सम्यक्त्व-स्वयं मिथ्यादृष्टि या अभवी जीव हो, फिर भी अपनी उपदेश शक्ति द्वारा अन्य जीवों को सम्यक्त्व भाव उत्पन्न कराने में निमित्त बनता है, दूसरों की यथार्थ श्रद्धा की रुचि जगाने में सहायक बनता है, तथा अन्य जीवों पर जीवाजीवादि तत्त्वों को समझाते हुए यथार्थ प्रकाश डाल सके, ऐसे मिथ्यात्वी या अभवी जीवों का सम्यक्त्व दीपक सम्यक्त्व कहलाता है । जिस तरह स्वयं दीपक के तले अन्धेरा होता है और वह दूर तक प्रकाश पहुँचा कर वस्तुओं को प्रदर्शित करता है, ठीक उसी तरह का कार्य मिथ्यात्वी-अभवी जीव करते हैं । अर्थात् वेखुद सम्यक्त्वीन होते हुए भी, स्वयं मिथ्यात्वी होते हुए भी अपनी बुद्धि, शक्ति एवं उपदेश से अन्य भव्य जीवों में सम्यक्त्व जगा सकते हैं। यहाँ पर व्यवहार नय के कार्य कारण भाव का अभेद मानकर मिथ्यात्वी अभव्य जीवों में उपदेश प्रधान होने से दीपक रूप सम्यक्त्वी कहलाते हैं । वस्तुतः वे मिथ्यात्वी हैं या अभवी भी हैं जैसे अंगारमर्दकाचार्य स्वयं अभव्य जीव होते हुए भी उपदेशक रूप से ऐसे दीपक सम्यक्त्वी कहे जाते थे।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा