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जानकारी एवं श्रद्धा भी वैसी ही विपरीत होगी । अतः सही श्रद्धा के लिए ज्ञान भी सही होना अत्यन्त आवश्यक है । दर्शन अर्थात् श्रद्धा यदि सम्यग् (सच्ची) होगी तो जीव की तत्त्वों के विषय में मान्यता अर्थात् मानने की वृत्ति भी सम्यग् होगी । अतः जानना और मानना यद्यपि स्वतन्त्र और भिन्न-भिन्न है, तथापि यदि वे सहयोगी एवं सहभागी बनकर साथ रहेंगे तो दुगुना चौगुना लाभ होगा। नहीं तो यथेच्छ लाभ नहीं भी होता है। तर्क बुद्धि से देखने पर ऐसा प्रश्न खड़ा होता है कि जो जानता है वह मानता है ? या जो मानता है वह जानता है ? जो जितना और जैसा जानता है, क्या वह उतना ही और वैसा ही मानता है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि ऐसा अनिवार्य नहीं है कि जो जाने वह माने ही, वैसे ही जोमाने उसे जाने ही । यह भी कई बार अनिवार्य नहीं दिखाई देता है ।
ज्ञान संग्रह के रूप में कई लोग सैकड़ों विषयों का ज्ञान (जानकारी) जरूर रखते हैं, जैसे कि मिथ्यादृष्टि जीव भी आत्मा, परमात्मा, मोक्षादि विषयों की जानकारी रखता भी है, और आजीविका के लिए दूसरों को पढ़ाता भी है, परन्तु स्वयं इन विषयों को नहीं भी मानता है अर्थात् स्वयं आत्मा परमात्मा मोक्षादि तत्त्वों में श्रद्धा नहीं रखता है ।
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अभव्य जीव भी कई बार आत्मा-परमात्मा, मोक्षादि तत्त्वों की जानकारी, उसका अच्छा व पर्याप्त ज्ञान भी रखता है। दीपक सम्यक्त्व के रूप में सम्यक्त्व की उपमा पाने वाला, अभव्य जीव दूसरे कई जीवों को पढ़ाकर या समझा-बुझाकर उनकी श्रद्धा उत्पन्न करा देता है लेकिन स्वयं सदा ही मिथ्यात्वी - श्रद्धाहीन रहता है । इस तरह कई जीव जानते हुए भी श्रद्धा रखने रूप मान्यता नहीं रखते हैं । वे श्रद्धा विहीन ज्ञानवान होते हैं। विद्वान् पंडित कई बार आर्हतदर्शन के आत्मा परमात्मा, मोक्षादि तत्त्वों का अभ्यास करते और कराते हैं । अहिंसा आदि सिद्धान्तों पर भाषण भी देते हैं और लेख भी लिखते हैं परन्तु उसमें श्रद्धा नहीं रखते हैं । वे साफ कहते हैं कि हम मात्र आजीविका के लिए किसी को पढ़ा देते हैं, तथा पैसा मिलता हो, सन्मान मिलता हो तो भाषण भी देते हैं । लेख व पुस्तक आदि भी लिख देते हैं । परन्तु हम तो यही मानते हैं कि गाय या अश्व मारकर, उनका पुरोडास बनाकर यज्ञ करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है । यही हमारी श्रद्धा है ।
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जैसे मन्दिर का एक पुजारी भगवान की पूजा आदि अच्छी तरह करता है, वह क्रिया-विधि आदि की अच्छी जानकारी रखता है, परन्तु मान्यता या श्रद्धा के विषय में उससे पूछा जाय तो वह साफ कहता है कि मैं तो मात्र आजीविका के लिए यह सब काम करता हूँ । मुझे नौकरी करना है, मुझे तो पैसों से मतलब है । इस प्रकार उसे श्रद्धा या मानने
सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द
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