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________________ १. जीव, २. अजीव, ३. पुण्य, ४. पाप, ५. आश्रव, ६. संवर, ७. बंध, ८. निर्जरा, ९. मोक्ष आदि नौं तत्त्व जानने जैसे हैं। समस्त जगत में ये ही मूलभूत नौं तत्त्व हैं। इनके अतिरिक्त संसार में किसी तत्त्व का अस्तित्व नहीं है । अतः तत्त्वों की संख्या न्यूनाधिक न रखते हुए निश्चित ही रखी गई है। इन्हीं तत्त्वों के साथ जुड़ने वाले भिन्न-भिन्न नामों से हम तत्त्वों का स्वरूप कुछ सादृश्य नामकरण से भी जान सकते हैं, जैसे— जीव (चेतन), अजीव (जड़), आत्मा-परमात्मा, कर्म- धर्म, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, लोक- अलोक, इहलोक - परलोक, पूर्वजन्म - पुनर्जन्म, आश्रय, संवर बंध, क्षय, मोक्ष आदि मूलभूत मुख्य तत्त्व है । लोक व्यवहार के दृश्यमान पदार्थों को ही पदार्थ मात्र मानकर नहीं चलना है, परन्तु ऐसे तत्त्वभूत, तात्विक पदार्थों को मानकर चलने से एवं उनकी यथार्थ श्रद्धा रखने को सम्यग्दर्शन कहते हैं। जैसा कि नवतत्त्वकार कहते हैं कि जीवाइ नव पयत्थे, जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं । भावेण सद्दहंतो, अयाणमाणेवि सम्मत्तं ।। ५१ ।। जीवादि नौ पदार्थों को जो सम्यग् रूप से जानता है, उसे सम्यक्त्वी कहते हैं । इन नौ तत्त्वों का ज्ञान तीर्थंकर प्ररूपित कथन (जिनवाणी) के अनुसार एवं अनुरूप यथार्थ ही होना चाहिए। उसी को श्रद्धारूप सम्यक्त्व कहते हैं । श्लोक की दूसरी पंक्ति में जो बात कही गई है, उसका स्पष्ट अर्थ यह है कि ज्ञानावरणीय आदि कर्म के कारण यदि तत्त्वभूत पदार्थों का ज्ञान कोई विशेष कक्षा का न भी पाया हो, परन्तु सुगुरुयोग से श्रवणादि द्वारा समझकर उन तत्त्वों पर दृढ़ श्रद्धा रखना भी सम्यक्त्व कहलाता है; अर्थात् भाव से श्रद्धा रखता हुआ भी सम्यक्त्वी कहलाता है। इस तरह यहाँ पर तत्त्वभूत नौ पदार्थों का यथार्थ .. सम्यग् ज्ञान एवं उनकी भावपूर्वक दृढ़ श्रद्धा इन दोनों को सम्यक्त्व के जनक बताए हैं। इसी बात को उत्तराध्ययन सूत्र आगम के प्रस्तुत श्लोक से आधार मिलता है— तहियाणं तु भावाणं, समावे उवएसणं । भावेण सद्दर्हतस्सु, सम्मतं तं वियाहियं ॥ यथार्थ सत्य स्वरूप सम्यक्त्व सम्यक्त्व की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि सम्यग् अर्थात् सही, सत्य यथार्थ एवं वास्तविक आदि । तत्त्वभूत पदार्थ के वास्तविक सत्य को स्वीकारना ही सम्यक्त्व कहलाता है । अर्थात् जगत् का कोई भी पदार्थ, अपने स्वरूप में जौ जैसा है, उसे उसी स्वरूप में, ठीक वैसा ही मानना, इसे सम्यक्त्व कहते हैं । सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द ५२५
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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