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यद् यथा तद् तथैव इति श्रद्धा एवं ज्ञानं सम्यक्त्वं उच्यते ।
अर्थात् जो तत्त्वभूत पदार्थ अपने स्वरूप में जैसा है उसे उसी स्वरूप में ठीक वैसा ही मानना एवं जानना सम्यक्त्व कहलाता है । इसी व्याख्या को चाहे सम्यक्त्व की व्याख्या कहो, चाहे सत्य की व्याख्या कहो — दोनों बात एक ही है। क्योंकि सत्य को ही सम्यक्त्व
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कहते हैं । ठीक इसके विपरीत मानना या जानना मिथ्यात्व कहा जाएगा । मिथ्यात्व असत्य एवं अज्ञान रूप होता है । जबकि सम्यक्त्व सत्य एवं सम्यग् ज्ञान रूप होता है । अतः सम्यक्त्व में सत्य का आग्रह होता है और यथार्थता एवं वास्तविकता की दृष्टि होती है जबकि मिथ्यात्व में ठीक इससे विपरीत असत्य का आग्रह होता है । साथ ही अज्ञानतावश दाग्रह, दुराग्रह की वृत्ति होती है ।
अब प्रश्न यह उठता है कि ज्ञान का चरम सत्य स्वरूप कहाँ से प्राप्त किया जाय ? प्रत्येक व्यक्ति अपनी बात सच्ची ही कहता है, अतः किसकी बात सच्ची मानें ? “मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्नाः” इस कथन के अनुसार — “जितनी व्यक्ति उतनी मति” या “जितने मुंह उतनी बात” वाला ऐसा संसार का स्वरूप है । कोई भी व्यक्ति, मत, पंथ, गच्छ, समुदाय या धर्म अपनी बात को असत्य कहने को तैयार नहीं है । अतः किसे सत्य मानें ? और किसका मत सत्य मानें ? यह हमारे सामने एक विकट प्रश्न है।
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एक ओर शास्त्र - सिद्धान्त यह कहता है कि चरम सत्य का स्वरूप एक ही होता है । सत्य कभी भी दो रूपों में नहीं होता है। सत्य कभी भी अस्थिर या विनाशी, नाशवंत एवं क्षणिक नहीं होता है । सत्य तो सदा ही स्थिर, नित्य, ध्रुव, अविनाशी व शाश्वत होता है । ऐसे सत्य को कहाँ से प्राप्त करें ? हमें सत्य के सच्चे स्वरूप के दर्शन कहाँ से होंगे ? किसकी बात पर हम आँख मूंदकर पूर्ण विश्वास रखें ? किनकी बात को पूर्ण सत्य मानें और यह समझें कि इसमें अंशभर भी असत्य की संभावना ही नहीं है । जिसमें रंजमात्र भी शंका न हो ऐसी बात किसकी हो सकती है ?.
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इसके उत्तर में कहते हैं कि "सच्चं खु भयवं" अर्थात् सत्य ही भगवान है । भगवान ही पूर्ण सत्य स्वरूप है और भगवान का कहा हुआ ही चरम सत्य है । इस सत्य और भगवान में अविनाभाव (एकात्म) सम्बन्ध है । तर्क बुद्धि से सोचने पर तर्क का आकार इस प्रकार का हो सकता है कि जो-जो सत्य हैं वह भगवान ने कहा है ? या जो-जो भगवान ने कहा है वह सत्य है ? या जितना सत्य है, उतना भगवान ने कहा है ? सत्य बड़ा है या भगवान ? भगवान से सत्य की उत्पत्ति हुई है या सत्य से भगवान की उत्पत्ति हुई है ? ऐसे कई प्रश्नों का सारांश यह है कि सत्य सर्वज्ञ कथित एवं सर्वज्ञोपदिष्ट है ।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा