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अब प्रश्न यह उठता है कि यह सम्यक्त्व कैसा होता है ? इसका स्वरूप कैसा होता है? सम्यक्त्व किसे कहते हैं ? सम्यक्त्व की व्याख्या क्या है ? सम्यक्त्व प्राप्ति की रीति एवं प्रक्रिया को हम पहले देख चुके हैं । अतः यहाँ पर सम्यक्त्व की व्याख्या एवं स्वरूप का विवेचन किया जाता है। सम्यक्त्व की व्याख्या एवं स्वरूप
तत्त्वार्थ सूत्र में उमास्वातिजी महाराज ने सम्यक्त्व की व्याख्या करते हुए लिखा है कि
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग् दर्शनम् ।। १-२॥ तत्त्व + अर्थ = श्रद्धानं = सम्यग्दर्शन तत्त्वरूप जो पदार्थ हैं, उनकी दृढ़ श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहते हैं । तत्त्व जो जीवादि पदार्थ हैं उनके यथार्थ स्वरूप की जानकारी एवं मानने की वास्तविक श्रद्धा को सम्यग दर्शन कहते हैं । अर्थात् तत्त्वभूत जीवादि पदार्थों की परिणाम जन्य तात्त्विक श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहते हैं।
जीवादि तत्त्व कौन से हैं ? यह बताने के लिए आगे के चौथे सूत्र में कहते हैं कि___जीवाजीवाश्रव बंधसंवर निर्जरा मोक्षास्तत्त्वम्॥१-४॥
जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष आदि तत्त्व हैं । पूर्वधर महापुरुष उमास्वाति महाराज ने इस सूत्र की रचना में पुण्य और पाप को आश्रव तत्त्व के अन्तर्गत गिनकर तत्त्वों की संख्या सात रखी है,क्योंकि शुभाश्रव को पुण्य कहते हैं व अशुभ आश्रव को ही पाप कहते हैं । इसलिए पुण्य और पाप को आश्रव के शुभाशुभ भेद गिनकर तत्त्वों की संख्या सात कही जा सकती है, और जब पुण्य-पाप की व्याख्या स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में करते हैं तब तत्त्वों की संख्या नौ मानी जाती है, जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र आगम में दर्शाया है
जीवाऽजीवा य बंधो य, पुण्ण पावाऽसवो तहा।
संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव॥ (उत्तरा–१४) - जीव, अजीव, बंध, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये नौ तत्त्व हैं । इसी के जैसी, परन्तु क्रम भेद दर्शाती हुई, गाथा नवतत्त्व प्रकरण में इस प्रकार है
जीवाजीवा पुण्णं पावाऽऽसव संवरोय निज्जरणा। बन्यो मुक्खो यतहा, नव तत्ता हुंति नायव्वा॥ (नवतत्त्व-१)
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आध्यात्मिक विकास यात्रा