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________________ भेद करके, मानो दुश्मन के दुर्भेद्य किले को भेदकर विजय प्राप्त करता है । उसी तरह ग्रन्थि भेद करने रूप दर्शन मोहनीय एवं अनन्तानुबंधी कषाय आदि मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का भेद करके, सम्यक्त्व प्राप्ति के विजय से जो आनन्द होता है, वह जीवन का प्रथम आनन्द होता है । इस प्रकार के कई दृष्टान्त शास्त्रों में दिये गये हैं । यद्यपि ये दृष्टान्त से सर्व आंशिक तुलना भी नहीं कर सकते हैं, फिर भी उस आनन्द को समझने के लिए अनुमान जन्य स्थिति का परिचय करा सकते हैं । स्वाभाविक है कि अनादिकाल से जिस जीव ने जिस सम्यक्त्व को कभी प्राप्त नहीं किया था, उसे इस प्रकार के सम्यक्त्व को प्राप्त करके, सदा के लिए संसार से मुक्त होकर, मैं मोक्ष में एक दिन निश्चित ही जाऊँगा, इस प्रकार के दृढ़ संकल्प उसे अभूतपूर्व आनन्द होता है । सर्वप्रथम जीव कौन सा सम्यक्त्व प्राप्त करता है ? इसके बारे में शास्त्रकार महर्षि कहते हैं कि अनादि मिथ्यादृष्टि जीव यथाप्रवृत्ति आदि तीन करणों के द्वारा सर्वप्रथम औपशमिक प्रकार का सम्यक्त्व प्राप्त करता है । 1 . कोई जीव क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी प्राप्त करता है । सिद्धान्तकारों का मत है कि मिथ्यात्व गुणस्थानक से जीव सीधे चौथे, अविरत सम्यक् दृष्टि गुणस्थानक पर आता है यद्यपि चौथे गुणस्थानक पर व्रत, विरति, पच्चक्खाण न होते हुए भी उसकी श्रद्धा सम्यग् होती है । सम्यक्त्व प्राप्ति के दो प्रकार " तन्निसर्गादधिगमाद् वा" (१/३) निसर्गाद्वाऽधिगमतो, जायते तच्च पंचधा । मिथ्यात्वपरिहाण्यैव, पंचलक्षणलक्षितम् ॥ सम्यक्त्व प्राप्ति ( धर्मसंग्रह - २२) अधिगम से निसर्ग से निसर्ग = अर्थात् बिना किसी निमित्त के, स्वाभाविक, सहज रूप से । निसर्ग से—- तीर्थंकर भगवान, गुरुउपदेश आदि किसी भी प्रकार का निमित्त न प्राप्त होते हुए भी जो जीव स्वयं सहज, स्वाभाविक भाव से तथाभव्यत्वादि प्राप्त करके सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द ५१७
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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