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________________ उदाहरण के लिए समझ लीजिए कि महाकुष्ट रोग की व्याधि से त्रस्त, व्याकुल हुए, रोगी को शीतोपचार आदि किसी औषधि विशेष से अचानक चमत्कार की तरह रोग शान्त होते ही, रोगी को जैसा आनन्द होता है, वैसा ही अनादि संसार के मिथ्यात्व रोग के तीनों करण रूप महौषधि से मिथ्यात्व की निवृत्तिपूर्वक सम्यक्त्व प्राप्त होते ही जीव को पारमार्थिक परम आनन्द होता है। आत्मा के अपूर्व वीयोल्लास के प्रताप से ग्रन्थि भेद होकर, मिथ्यात्व तिमिर दूर होते ही, सम्यक्त्व रूप सूर्योदय से प्रकाश फैल जाता है । वह आनन्द अनुपम ही होता उपरोक्त दृष्टान्त भी उपमा देने में स्थूल-कक्षा के होने से छोटे पड़ते हैं। अतः हरिभद्रसूरी हमें एक बहुत अच्छा दृष्टान्त देते हैं। . जात्यन्धस्य यथा पुंस-चक्षुर्लाभेशभोदये। सहर्शनं तथैवाऽस्य प्रन्थिभेदेऽपदे जगुः॥ जन्म से ही अन्ध, ऐसे जन्मान्ध पुरुष को जिसने जीवन में कभी भी रूप, रंग, प्रकाश आदि की दुनिया देखी ही न हो, और योगानुयोग, अचानक किसी दैवी चमत्कारवश आँखें खुल जाने पर सब कुछ दिखाई देते समय जो आनन्द की अनुभूति होती है, वह अपूर्व, अनुपम होती है । ठीक इसी तरह अनन्त पुद्गल परावर्तकाल में, अनन्त जन्म तक, अनादि मिथ्यात्व के कारण, जिसके सम्यग्दर्शन रूप नयनयुगल नष्ट हो चुके थे, जो वर्षों से सत्य तत्त्व को देख ही नहीं सका था, ऐसे भवाभिनन्दिजीवको योगानुयोग तथाभव्यत्व परिपक्व होने पर, अपूर्वकरणादि तीनों करण की सहायता से, ग्रन्थि भेद होने पर, सम्यग् दृष्टि रूपी जो नेत्रोन्मिलन होता है, उससे मिथ्यात्व तिमिर नांश रूपी, जो यथार्थ सत्य तत्त्व का जो श्रद्धान् होता है, उसका आनन्द जन्मान्ध की अपेक्षा भी अनेक गुना ज्यादा होता है। ऐसे अनेक दृष्टान्त शास्त्रों में बताए गए हैं। ___ एक अन्य दृष्टान्त ऐसा भी है कि सशक्त शक्तिमान योद्धा भी भयंकर संग्राम में युद्ध करते-करते अन्त में हारने की स्थिति में, घोर निराशा के सागर में डूब जाता है। ऐसे में योगानुयोग अन्तिम क्षण में तीर के सही निशाने पर लगने से, शत्रु राजा की मृत्यु होते ही, उसे युद्ध में विजय रूपी जो आनन्द का अनुभव होता है, उससे भी अनेक गुना ज्यादा आनन्द, भव्य जीव को संसार संग्राम में मोहनीय कर्म की प्रकृति रूपी सेना के साथ युद्ध करते करते हारने के अन्तिम क्षण में अपूर्वकरण आदि योगों से राग-द्वेष की ग्रन्थि का ५१६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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