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________________ अध्याय ९ सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द तया च भिन्ने दुर्भेदे कर्मग्रन्थिमहाबले । तीक्ष्णेन भाववज्रेण बहुसंक्लेशकारिणी ॥ योगबिन्दु में कहते हैं कि अपूर्वकरण रूप तीक्ष्ण भाव वज्र द्वारा दुर्भेद्य महाकष्ट से विदारणीय ऐसी राग-द्वेष की निबिड़ ग्रन्थि को भेदकर, जीव जब आगे बढ़ता है तब उसे अत्यन्त आनन्द होता है । वह आनन्द वास्तव में अनुपम, अद्भुत एवं अभूतपूर्व होता है । वह आनन्द अवर्णनीय होता है । स्वाभाविक है कि अनादिकाल के महामिथ्यात्व एवं अनन्तानुबंधी कषाय आदि में जीव ने जो वास्तविक आनन्द कभी भी प्राप्त नहीं किया, ऐसा आनन्द आज सम्यक्त्व प्राप्त होने पर वह अनुभव कर रहा है। तेज गरमी की ऋतु में जब सूर्य के प्रखर ताप से भयंकर गरमी पड़ रही हो, और ऐसे में निर्जन वन में चलता हुआ कोई मुसाफिर गर्मी व पसीने से आक्रान्त हो चुका हो और उसे एका एक निबिड़ वृक्ष की छाया मिल जावे, साथ ही पानी भी मिल जावे, तो उसे कितना आनन्द होगा ? यदि उसकी सेवा में और वृद्धि होती जावे तो उसके आनन्द में भी वृद्धि होती जावेगी । ठीक इसी तरह अनादिकालीन संसाररूप जो वन अटवी है, उसमें ऋतु परिवर्तन की तरह जन्म-मरण के दुःख होते ही रहे, और उसमें मिथ्यात्व और कषाय के ताप से तृप्त हुए तृष्णा रूपी तृषा से पीड़ित ऐसे भव्य जीव रूपी मुसाफिर को, अनिवृत्तिकरण रूपी शीतल वृक्ष की छाया मिलते ही, वह सम्यक्त्व रूपी शीतलता की प्राप्ति से अनहद आनन्द प्राप्त करता है । यह प्रथम बार ही उसे प्राप्त होने के कारण अवर्णनीय होता है । इसी बात को योगबिन्दु में एक अलग दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है । आनन्दो जायतेऽत्यन्तं तात्त्विकोऽस्य महात्मनः । सदूष्याध्यभिभवे यद्वद् व्याधितस्य महौषधात् ॥ - ग्रन्थि भेद किए हुए को, सम्यक्त्व प्राप्त होते ही, प्रशस्त भाववंत महात्मा को, तात्त्विक आनन्द-प्रमोद प्राप्त होता है । सम्यक्त्व प्राप्ति का अद्भुत आनन्द ५१५
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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