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___४) असंख्यात गुण असंख्यात गुण चढ़ते क्रम में अशुभ कर्मदलिकों का नये बंधाते हुए शुभ कर्मों में संक्रमण करना, अर्थात् अशुभ को शुभ में परावर्तित करना । प्रति समय असंख्य गुण बनता जाय, उसे अपूर्व गुणसंक्रमण कहते हैं। यहाँ आयुष्य के अतिरिक्त सात कर्मों का गुणसंक्रमण होता है।
५) अपूर्व स्थिति बंध में अन्तर्मुहूर्त में नए कर्मबंध की कालस्थिति पल्योपम के संख्यातवें भाग जितनी न्यूनतम होती है । अध्यवसाय की विशुद्धि पर कर्मबंध स्थिति अल्प होती है।
सारांश यह है कि अपूर्वकरण के समय शुभ अध्यवसाय प्रति समय चढ़ते क्रम के होते हैं । अतः समय-समय पर उपरोक्त पाँचों ही अपूर्वकरण चढ़ते क्रम से होते हैं।
इस तरह के उपरोक्त पाँचों ही अपूर्व स्थिति घातादि जो अनादि भूतकाल में कभी भी नहीं हुए थे, और आज अपूर्व अर्थात् अभूतपूर्व रूप से होते हैं । अतः यह अपूर्वकरण कहलाता है । यह वीर्योल्लासरूप अपूर्वकरण अंतर्मुहूर्त ही रहता है।
- पहले किया गया यथाप्रवृत्तिकरण नामक प्रथम करण अंकरहित शून्य जैसा है, जबकि अपूर्वकरण होते ही शून्य के पूर्व में १ से ९ तक अंक लग जाते हैं। इससे सभी शून्यों की कीमत हजार लाख आदि बड़ी से बड़ी संख्या बन जाती है। वैसे ही यदि अपूर्वकरण न हो तो मात्र यथाप्रवृत्तिकरण की कीमत शून्य जैसी होती है। लेकिन अपूर्वकरण होते ही दोनों की कीमत अनेक गुणा बढ़ जाती है । यद्यपि यथाप्रवृत्तिकरण में आत्मा की निर्मलता के विकास का प्रारम्भ अवश्य होता है, लेकिन विशेष प्रकार की निर्मलता, विमलता तो अपूर्वकरण में ही होती है। अनिवृत्तिकरण
अप्पुव्वेणं तिपुंज मिच्छत्तं कुणइ कोद्दवोवमया। - अनियट्टीकरणेण उ सो सम्मइंसणं लहइ ।।
जीव अपूर्वकरण के द्वारा कोदरा आदि धान्य के समान मिथ्यात्व के तीन पुंज करता है परन्तु सम्यक्त्व की प्राप्ति तो अनिवृत्तिकरण के बाद होती है।
अ+निवृत्ति = अनिवृत्ति । अर्थात् जो निवृत्त न हो, वह अनिवृत्त । अनिवृत्ति + करण = अनिवृत्तिकरण ।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा