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मच्छर आदि विकलेन्द्रिय जीवों तक के लघु जीव इसके अधिकारी ही नहीं हैं । पंचेन्द्रिय जीव उसमें भी पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ही इसे करनेवाले अधिकारी बनते हैं । उसमें भी सभी पंचेन्द्रिय नहीं लेकिन मात्र वे ही, जिसका मोक्ष प्राप्ति का समय अर्द्ध पुद्गल परावर्तकाल ही शेष रहा हो, ऐसा तथाभव्यत्व जिसका परिपक्व हुआ है, ऐसा भव्य जीव ही अपूर्वकरण करने का सच्चा अधिकारी होता है।
राग-द्वेष की निबिड़ ग्रन्थि का भेदन करने में ऐसा भव्य जीव इस अपूर्वकरण का उपयोग शस्त्र के रूप में करता है । अतः ग्रन्थिभेद यह अपूर्वकरण की क्रिया का फल है। अनादिकालीन अनन्त पगल परावर्तकाल में बीते अनन्त भवों में, जीव ने ऐसा जो कभी नहीं किया था, वह ग्रन्थिभेद का कार्य अपूर्वकरण क्रिया से आज प्रथम बार ही किया है।
इस अपूर्वकरण में पाँच वस्तुएँ अपूर्व प्रकार की होती हैं१) अपूर्व स्थितिघात २) अपूर्व रसघात। ३) अपूर्व गुणश्रेणी। ४) अपूर्व गुणसंक्रमण। ५) अपूर्व स्थितिबंध।
१) जैसा कि जीव ने पूर्व में कभी भी नहीं किया है, ऐसा कर्म बन्ध की स्थितियों का घात इसमें करता है । यथाप्रवृत्तिकरण करके जीव कर्म बंध की उत्कृष्ट स्थितियों का घात करके उनकी अंतः कोड़ा कोड़ी सागरोपम की स्थिति करता है । उसमें अपूर्वकरण से, और कम करके, शुरू अध्यवसाय से संख्यात भाग जितनी ही काल-स्थिति रह जाती है, इसे अपूर्व स्थितिघात कहते हैं।
२) अशुभ कर्मों में रहे हुए उग्र रस को मंद बनानेरूप रसघात का कार्य अपूर्व रसघात कहलाता है।
३) गुण अर्थात् असंख्य गुणाकार और श्रेणी, अर्थात् कर्म दल की रचना करने, रूप क्रम या पंक्ति । स्थितिघात में बताए हुए, स्थिति में से प्रति समय जिन कर्म दलिकों को नीचे उतारता है, उन्हें उदय समय से लेकर अंतर्मुहूर्त तक के स्थिति, स्थानों, असंख्य गुण . के क्रम से सुव्यवस्थित करता है । ऐसी कर्मदलिक रचना को अपूर्व गुणश्रेणी कहते हैं।
सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण
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