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________________ पड़ता है उसे “अन्तरकरण” कहते हैं । अनिवृत्तिकरण काल के क्रियाकाल के अन्तर्मुहूर्त को अनिवृत्तिकरण तथा निष्ठाकाल के अंतर्मुहूर्त को अन्तरकरण मानते हैं। दोनों का संयुक्तकाल भी अंतर्मुहूर्त ही होता है । उसे सम्पूर्ण अनिवृत्तिकरण कहते हैं। ७) अंतरकरण-अनिवृत्तिकरण के ही इस अन्तरकरण रूप निष्ठाकाल में मिथ्यात्व दलिक नहीं रहने से यहाँपर प्रथम समय में ही उपशम समकित प्राप्त करता है । इसे चतुर्थ गुणस्थान कहते हैं । कोई-कोई जीव चौथे से भी ज्यादा गुणस्थान भी अन्तरकरण में ही प्राप्त कर लेता है। ८) अंतरकरण के अंतर्मुहूर्त की अन्तिम ६ आवलिकारूप सास्वादन का काल । कोई मन्द परिणामी जीव उपशम-समकित में ही यहाँ पर अनन्तानबन्धी का उदय होने पर मलिन परिणामवाला हो जाय, और ६ आवलिका पूर्ण होने पर अवश्य ही मिथ्यात्व का उदय हो जाता है। ९) अन्तरकरण के समय में ही भावी मिथ्यात्व के तीन पुंज करता है उसमें से (अर्धशुद्ध किया हुआ) मिश्र पुंज।। १०) सम्पूर्ण शुद्ध किया हुआ समकित पुंज । ११) अशुद्ध रहा हुआ मिथ्यात्व पुंज। इस तरह चित्र में दिए हुए नम्बर के साथ यहाँ विशेष विस्तृत परिचय देते हुए स्पष्टीकरण किया गया है । प्रयल करने पर स्पष्ट समझ में आ सकता है। दूसरा करण- अपूर्वकरण- अपूर्व “न पूर्वमिति अपूर्वम्” पूर्व अर्थात् पहले कभी भी नहीं किया है, ऐसा आत्मिक अध्यवसाय रूप शक्ति का प्रयोग करना, इसे अपूर्वकरण कहते हैं अर्थात् अनादिकाल के अनन्त पुद्गल परावर्तकाल तक के संसार परिभ्रमण में जिसका प्रयोग जीव ने पूर्व में कभी भी नहीं किया था, ऐसे शुभ प्रशस्त आत्मिक अध्यवसायरूप शक्ति का अभूतपूर्व प्रयोग करके राग-द्वेष की निबिड़ ग्रन्थि का छेदन-भेदन करना यह अपूर्वकरण कहलाता है । यह अपूर्वकरण पहले यथाप्रवृत्तिकरण की अपेक्षा ज्यादा शुद्धतर-विशुद्ध कक्षा का है। पूर्वप्रवृत्तिविशिष्ट यथाप्रवृत्तिकरण करनेवाला भव्य जीव ही इस अपूर्वकरण को कर सकता है । यह अपूर्वकरण यथाप्रवृत्तिकरण का कार्य हुआ, जबकि यह आगे के तीसरे अनिवृत्तिकरण का कारण होता है । एकेन्द्रिय से चउरिन्द्रिय तक के चींटी, मकोड़े, मक्खी, ५१० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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