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वापिस कभी भी किसी भी कर्म की उत्कृष्ट बंधस्थिति नहीं बांधेगा, क्योंकि मिथ्यात्वादि की वैसी तीव्रता नहीं है । फिर क्रमशः छठे सोपान पर चढता हुआ जीव भूतकाल की सातों कर्मों की जो उत्कृष्ट स्थितियाँ बांधी हुई पडी हैं उसको क्षीण करने का काम करता है। और सात कर्मों की स्थितियाँ उत्कृष्ट की कक्षा से घटाकर....क्षीण करते हुए एक कोडा कोडी सागरोपम के अन्दर अन्तःकोडाकोडी सागरोपम की करता है। उसके पश्चात् विशुद्ध कक्षा का पूर्वप्रवृत्त यथाप्रवृत्तिकरण करता है । यदि सामान्य यथाप्रवृत्तिकरण करे तो वह एक के अंक की संख्या के बिना के शन्यों के जैसी स्थिति है। ऐसे विशद्ध पूर्वप्रवृत्त यथाप्रवृत्तिकरण की प्रकिया सातवें क्रम पर करके ८ वे क्रम के सोपान से अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और अंतरकरण नामक तीन करण करके अन्त में उपशम सम्यग दर्शन प्राप्त करता है। यह प्रक्रिया इस निम्न चित्र से ज्यादा स्पष्ट की जा सकती है। सम्यग्दर्शन प्राप्ति की प्रक्रिया-
. चित्र की विशेष समझ
१) जीव का अनादि मिथ्यात्व दशा का काल “मिथ्यात्व” गुणस्थानक कहलाता है। इस प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थानक पर जीव “नदीगोलपाषाणन्याय" की तरह यथाप्रवृत्तिकरण की प्रवृत्ति करके कर्मों की उत्कृष्ट स्थितियों को घटाकर अन्तःकोडा कोडी सागरोपम में भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून जितनी स्थिति घटाने का काम यहाँ करता है।
२) राग-द्वेष के तीव्र उदयरूप ग्रन्थिप्रदेश के समीप जीव अनेक बार आता है, परन्तु ग्रन्थि (गांठ) से डरकर वापिस चला जाता है या वहीं रुक जाता है।
३) ग्रन्थी (गांठ) अथवा मिथ्यात्व के उदयवाला तीव्र राग-द्वेष का काल ।
४) एक ही अन्तर्मुहूर्त काल में कोई जीव “अपूर्वकरण" रूप आत्मा के निर्मल विशुद्ध अध्यवसाय से राग-द्वेष के अधीन न होते हुए ग्रन्थि (गांठ) का छेदन-भेदन करता है वह “अपूर्वकरण" काल कहलाता है।
५-६) अनिवृत्तिकरण के अन्तर्मुहूर्त का पूर्व अन्तर्मुहूर्त काल । (क्रियाकाल) इस काल को पसार करता हुआ भविष्य के अन्तर्मुहूर्त काल में उदय में आनेवाले मिथ्यात्व के दलिकों में से कुछ वर्तमानकालीन अन्तर्मुहूर्त में खींच लाता है और कुछ भविष्यद् अन्तर्मुहूर्त में डाल देता है । इस प्रकार बीच का अंतर्मुहूर्त मिथ्यात्व दलिकों से रहित बना देता है । यहाँ पर मिथ्यात्व की सतत लम्बी स्थिति के दो भाग करने से बीच में जो अन्तर
सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण
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