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1. मिध्यात्वी का यथा प्रवृत्तीकरण काल
4. अपूर्वकरण
2. ग्रन्थीप्रदेश
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5. संपूर्ण अनिवृत्तिकरण
3. ग्रन्थी
8. उपशम सम्यक्त्व का अंतर्मुहूर्तकाल
6. अनिवृत्ति पूर्वाकाल मिथ्यात्व उपर की स्थिति
7. अंतकरण निष्ठाकाल
10. समकित पुंज 11. मिथ्यात्व पुंज
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भगीरथ कार्य करके जीव राग- - द्वेष की तीव्रतम ग्रन्थि को भेदने के लिए तैयार होता है । बलवान बनता है । शक्तिशाली बनता है । और अपूर्वकरण करने के लिए कटिबद्ध बनता है ।
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निम्न स्थिति
9. मिश्रपुंज
सम्यग् दर्शन की प्राप्ति के विकास का क्रम
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प्राथमिक विकास की कक्षा में आत्मा को कहाँ से उठाई गई है वह अब तक के विवेचन से ख्याल आ गया होगा । सम्यग् दर्शन की प्राप्ति की दिशा में विकास करने के लिए जीव को कई अवस्थाओं में से गुजरना पडता है । अनादि - अनन्तकालीन अचरमावर्त के काल में ओघसंज्ञा में जीव जब भवाभिनन्दि की अवस्था में पड़ा था, अपना काल बिता रहा था ... उस अवस्था से आगे की अवस्थाओं का विचार करते हुए कितनी अवस्थाएं पार करके जीव सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कर सकता है यह निम्न सोपानों से समझा जा सकता
है ।
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इस तरह विकास के सोपान हैं । अनादि अनन्तकालीन अचरमावर्त में तीव्र मिथ्यात्व की वृत्तियों में जीव भवाभिनंदि की कक्षा में ओघ संज्ञा में पडा हुआ था । वहाँ से आगे विकास के सोपानों की सीढी पर चढना जीव प्रारंभ करता है । सर्वप्रथम जीव को तीव्र मिथ्यात्व को मन्द मन्दतर करना चाहिए। तथाभव्यत्व परिपक्व हो जाने पर जीव चरमावर्त में प्रवेश करता है । फिर चौथे सोपान पर आगे बढता हुआ... विशुद्धि करता है । इस विशुद्धि से अपनी योग्यता - प्रात्रता निर्माण करने की भूमिका निर्माण करता है । इस तरह क्रमशः आगे विकास करता हुआ जीव अपुनर्बंधक - आदिधार्मिक बनता है । ललितविस्तरा टीका में आदिधार्मिक के लक्षण जो दिये हैं वैसा बनता है । अब दुबारा
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आध्यात्मिक विकास यात्रा