________________
आत्मा का ऐसा विशुद्ध अध्यवसायविशेषरूप करण जिससे सम्यक्त्व की प्राप्ति किए बिना जीव निवृत्त नहीं होता है, उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं । अपूर्वकरण से जीव ग्रन्थिभेद करके आगे बढ़ता है, और अनिवृत्तिकरण से सम्यक्त्व प्राप्त करके स्थिर होता है। अतः सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना, पुनः पीछे न हटने की प्रतिज्ञारूप आत्मा के विशुद्ध अध्यवसायरूप संकल्प अनिवृत्तिकरण है । यह अपूर्वकरण का कार्य है। इसका समय अंतर्मुहूर्त प्रमाण काल है। यह चरम अर्थात् अन्तिम करण है । इसमें जीव कार्य करता
___ मिथ्यात्व के दो भाग करके अन्तःकरण करता है । इसमें से छोटे पुंजरूप मिथ्यात्व मोहनीय कर्म दलिकों का अन्तर्मुहूर्त में क्षय करता है, उसी क्षण उसे उपशम नामक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । इसका नाम अन्तःकरण है । इस तरह अनिवृत्तिकरण के बल पर अन्तःकरण करते हुए जब निष्ठाकाल का अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, तब सर्वप्रथम मिथ्यात्व अटकता है, क्योंकि पहले ही मिथ्यात्व के दलिकों को वहाँ से नष्ट कर दिया है। अतः यहाँ मिथ्यात्व के उपशम से उपशम भाव द्वारा उत्पन्न होता हुआ, सम्यक्त्व
औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। मिथ्यात्व मोहनीय और अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया व लोभ का अनुदय अर्थात् उपशम होता है । और उपशम भाव द्वारा उत्पन्न होता हुआ सम्यक्त्व औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है । जब जीव अनिवृत्तिकरण करता है, तब अनादि के अज्ञान का अन्त आता है। अनादिकाल का अज्ञान दूर होते ही सम्यग् परिणति रूप सम्यक्त्व प्राप्त होता है। इसमें संसार परिणति का अन्त आता है । जिस तरह दावानल जलता-जलता ऊखर भूमिप्रदेश में आते ही, शान्त हो जाता है वैसे ही अनादि संसार का अज्ञान एवं मिथ्यात्व अनिवृत्तिकरण के अन्तःकरण के फलरूप शुद्ध-सम्यक्त्व प्राप्ति के पास आते ही दूर हो जाता है।
उपरोक्त यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण- तीनों करण के माध्यम से जीव अपनी विकास यात्रा का शुभारम्भ करता हुआ, प्रथम सोपान चढ़ता है, यद्यपि यह सारा कार्य मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थानक में होता है । इसके बाद जीव सीधा सम्यक्त्व के चौथे गुणस्थानक पर जाता है।
अनादि मिथ्यात्व को तोड़कर, व निबिड़ राग-द्वेष की ग्रन्थि को भेद कर, जीव जब प्रथम बार सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, तब उसे कितना आनन्द होता है, यह अवर्णनीय
सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण
५१