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________________ जो-जो सर्वज्ञ हैं वे भगवान हैं या जो-जो भगवान हैं वे सर्वज्ञ हैं ? जो, जो वीतरागी मरिहंत हैं वे भगवान हैं या जो-जो भगवान हैं वे वीतरागी अरिहंत हैं ? सत्य की इस कसोटी पर बात स्पष्ट दिखाई दे रही है कि जो-जो सर्वज्ञ, पूर्ण ज्ञानी, सम्पूर्ण ज्ञानी, अनन्तज्ञानी या केवल ज्ञानी हैं, वे ही भगवान हैं । उन्हें ही भगवान के रूप में स्वीकारना चाहिये । यही सत्य है । लेकिन अपने मन से बन बैठे भगवान तो इस संसार में अनेक हैं । सभी सर्वज्ञ नहीं हैं। आज तो अल्पज्ञ, अज्ञानी, विपरीतज्ञानी भी भगवान बन बैठे हैं। अत: उन्हें भगवान कैसे माने ? इसी तरह जो रागद्वेष वाले हैं, काम-क्रोधादि आत्म शत्रु रूप कर्म अरियों से युक्त हैं, ग्रस्त हैं उन्हें भगवान कसे माने । अतः जो अरिहंत वीतरागी हैं वे अवश्य भगवान कहे जा सकते हैं परन्तु जो स्वयं अपने आप भगवान बने बैठे हों, जो रागद्वेष युक्त हों, जो कामक्रोधादि दोषग्रस्त हों, जो भोग लीला प्रधान जीवन जीने वाले हों, जो कंचन-कामिनी एवं वैभव-विलास वाले हों, उन्हें भगवान कैसे कहा जा सकता है ? भगवान शन्द वाच्य १४ अर्थों में से किसी भिन्न अर्थ में या भिन्नार्थ में वे भले ही अपने आपको भगवान माने या उन्हें कोई भगवान कहे, लेकिन वे सच्चे अर्थ में भगवान कहलाने योग्य नहीं हैं । अतः भगवान को पहचानने के लिए एवं उनकी परीक्षा के लिए सिर्फ दो ही शब्द पर्याप्त हैं-एक उनका वीतराग होना (२) सर्वज्ञ होना । जैसे सोने की परीक्षा कसौटी पर कस कर करते हैं ठीक इसी तरह "वीतराग' व "सर्वज्ञ" होने सम्बन्धी इन दो शब्दों की कसौटी पर कसके भगवान के सच्चे स्वरूप को जान सकते हैं । यही बात निम्न श्लोक में कही गई है मोक्षमार्गस्य नेतारं, ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां । भेतारं कर्म भूभृतां, वन्देऽहं तद्गुणलब्धये ॥ जो मोक्ष मार्ग के उपदेशक हों, जो समस्त विश्व के तत्वों के ज्ञाता-सर्वज्ञ हों, तथा सर्वकर्मभूभृत अर्थात् कर्म के पहाड़ों को भेदने वाले विजेता अर्थात् वीतराग हो ऐसे भगवान के उन गुणों को प्राप्त करने के लिए, मैं उन्हें वन्दन करता हूं। सोचिये ! इस स्तुति में भगवान के गुण बताकर, उन्हें वन्दन किया गया है । अतः इन गुणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे गुण वाले ही भगवान होते हैं। भगवान और इन सर्वज्ञ वीतरागादि गुणों में परस्पर अविनाभाव एवं अन्योन्याभाव सम्बन्ध है। ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं। राग-द्वेष सहित एवं सर्वज्ञता रहित स्वरूप को कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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